अब परमात्मा को भोग्य पदार्थों का “आकर” कथन करते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) इस परमात्मा का कार्य्यभूत (स्थूरं) स्थूल=प्रत्यक्षयोग्य (अनस्थः) नश्वर (ऊरुः) अति विस्तीर्ण (अवरम्बमाणः) अवलम्बमान यह ब्रह्माण्ड (पुरस्तात्) आगे (अनु, ददृशे) दृष्टिगोचर हो रहा है (अभिचक्ष्य) उसको देखकर (शश्वती, नारी) नित्या प्रकृतिरूप स्त्री (आह) कहती है कि (अर्य) हे दिव्यगुणसम्पन्न परमात्मन् ! आप (सुभद्रं) सुन्दर कल्याणमय (भोजनं) भोगयोग्य पदार्थों के समूह को (बिभर्षि) धारण करते हैं ॥३४॥
भावार्थभाषाः - कूटस्थनित्य, नित्य, अनित्य, मिथ्या तथा तुच्छ, इस प्रकार पदार्थों की पाँच प्रकार की सत्ता पाई जाती है, जैसा कि ब्रह्म कूटस्थनित्य, प्रकृति तथा जीव केवल नित्य, यह कार्य्यरूप ब्रह्माण्ड अनित्य, रज्जु सर्पादिक प्रातिभासिक पदार्थ मिथ्या और शशशृङ्ग, वन्ध्यापुत्रादि तुच्छ कहे जाते हैं, इसी प्रकार इस मन्त्र में इस ब्रह्माण्ड को “अनस्थ” शब्द से अनित्य कथन किया है, जैसा कि “न आ सर्वकालमभिव्याप्य तिष्ठतीत्यनस्थः” इस व्युत्पत्ति से “अनस्थ” का अर्थ सब काल में न रहनेवाले पदार्थ का है, “अ” का व्यत्यय से ह्रस्वादेश हो गया है अर्थात् जो परिणामी नित्य हो, उसको “अनस्थ” शब्द से कहा जाता है। इसी भाव को इस मन्त्र में वर्णन किया गया है कि यह कार्य्यरूप ब्रह्माण्ड अनस्थ=सदा स्थिर रहनेवाला नहीं। यद्यपि यह अनित्य है, तथापि ईश्वर की विभूति और जीवों के भोग का स्थान होने से इसको भोजन कथन किया गया है।यहाँ अत्यन्त खेद से लिखना पड़ता है कि “भोजन” के अर्थ सायणाचार्य्य ने उपस्थेन्द्रिय के किये हैं और “अवरम्बमाण” के अर्थ लटकते हुए करके मनुष्य के गुप्तेन्द्रिय में संगत कर दिया है, इतना ही नहीं किन्तु “स्थूल” शब्द से उसको और भी पुष्ट किया है। केवल सायणाचार्य्य ही नहीं, इनकी पदपद्धति पर चलनेवाले विलसन तथा ग्रिफिथ आदि योरोपीय आचार्य्यों ने भी इसके अत्यन्त निन्दित अर्थ किये हैं, जिनको सन्देह हो, वे उक्त आचार्य्यों के भाष्यों का पाठ कर देखें, अस्तु−हम यहाँ बलपूर्वक लिखते हैं कि “भोजन” वा “अवरम्बमाण” शब्दों के अर्थ किसी कोश अथवा व्याकरण से अश्लील नहीं हो सकते। अधिक क्या, हम इस विषय में सायणाचार्य्य के भाष्य का ही प्रमाण देते हैः− देवी दिवो दुहितरा सुशिल्पे उषासानक्ता सदतां नियोनौ। आवां देवास उशती उशन्त उरौ सीदन्तु सुभगे उपस्थे॥ ऋग्० १०।७०।६इस मन्त्र में “उषा” को देवी=द्योतमान द्युलोक की शक्ति कहा गया है, “योनि” का अर्थ यज्ञस्थान और “उपस्थ” का अर्थ समीपस्थ किया है अर्थात् जब उषारूप देवी योनि=यज्ञस्थान के उपस्थ=समीप प्राप्त होती है, उस समय ऋत्विगादि यज्ञकर्ताओं को यज्ञ का प्रारम्भ करना चाहिये। यदि कोई इन अर्थों को इस प्रकार बिगाड़ना चाहता कि “नार्यभिवक्ष्याह सभद्रमर्य भोजनं बिभर्षि”=हे पति ! जो तू पहले नपुंसक था, अब उपस्थेन्द्रियरूप सुन्दर भोजन को धारण किये हुए है, तो क्या योनि, उपस्थ तथा उरु इन शब्दों के आ जाने से पूर्वोक्त अर्थ को न बिगाड़ देता, परन्तु ऐसा नहीं किया। यदि यह कहा जाय कि इस मन्त्र में “नारी” शब्द आया है, इसलिये इसके सहचार से नपुंसक की कथा तथा सुभद्र=भोजन के अर्थ उपस्थेन्द्रिय के ही हो सकते हैं अन्य नहीं, इसका उत्तर यह है कि “अर्चन्ति नारीरपसो न विष्टिभिः” ऋग्० १।९२।३ इस मन्त्र के अर्थ में सायणाचार्य को नारी का अर्थ “स्त्री” करना चाहिये था, परन्तु नारी का अर्थ यौगिक किया है, जैसा कि “नारीर्नेत्र्यः”=नृ नये, ॠदोरप्, नृनरयोर्वृद्धिश्च, शार्ङ्गरवादिषु पाठात् ङीन्”=नयनकर्त्री उषा देवी यहाँ नारी है। जब उषाकाल का नाम नारी हो सकता है तो फिर “सत्वरजस्तमः” इन तीनों गुणों की माता अनादिसिद्ध प्रकृति का नाम नारी क्यों नहीं हो सकता ? हमारे पक्ष में प्रबल तर्क यह है कि नारी का शश्वती विशेषण है, जो अनादिसिद्ध प्रकृति को कथन करता है, किसी व्यक्तिविशेष को नहीं।इससे भी बढ़कर हमारे पक्ष की पोषक अन्य युक्ति यह है कि “अर्य” शब्द मन्त्र में ईश्वर का वाचक है, जिसको निरुक्त और निघण्टु अपनी कण्ठोक्ति से ईश्वर का वाचक मानते हैं, अस्तु।इसी प्रकार अन्य मन्त्रों के अर्थ भी वेदानभिज्ञ भाष्यकारों ने बहुत प्रकार से अनेक स्थलों में बिगाड़े हैं, जिनको यथास्थान भले प्रकार दर्शाया गया है, अब हम उनमें से एक दो मन्त्रों को उदाहरणार्थ यहाँ उद्धृत करते हैं− यदस्या अहु भेद्याः कृधु स्थूलमुपातसत्। मुष्काविदस्या एजतो गोशफे शकुलाविव॥ यजु० २३।२८ इस मन्त्र में “स्थूल” और “मुष्क” शब्द आ जाने से महीधर ने ऐसे अश्लील अर्थ किये हैं, जिसको पढ़ने तथा सुनने से भी घृणा होती है। जिनको सन्देह हो, वे महीधरभाष्य पढ़कर देखें। घृणास्पद होने से हम उस अर्थ को यहाँ उद्धृत नहीं करते। वास्तव में बात यह है कि वेद के आशय को विना समझे जो लोग प्राकृतदृष्टि से वेदों के अर्थ करते हैं, वे महापाप के भागी होते हैं, जैसा किः− मातुर्दिधिषुमब्रवं स्वसुर्जारः शृणोतु नः। भ्रातेन्द्रस्य सखा मम॥ ऋग्० ६।५५।५इस मन्त्र का यदि अर्थ विना विचार से किया जाए, तो सीधा गाली प्रतीत होता है कि “मैं माता के दिधिषु=दूसरे पति को कहता हूँ कि वह स्वसुर्जार=बहिन का जार मेरे वचन को सुने, जो इन्द्र का भाई और मेरा मित्र है” यह अश्लील अर्थ किया है, परन्तु वास्तव में ऋग्वेद में जहाँ इस विराट् के तेजोमण्डल सूर्य्य का वर्णन किया गया है, उस प्रकरण का यह मन्त्र है, जिसका सत्यार्थ यह है कि मैं मातुर्दिधिषु=मानकर्त्री पृथिवी के धारण करनेवाले सूर्य्य को लक्ष्य करके कहता हूँ कि “स्वसुः=स्वयं सरतीति स्वसा”=जो अपने स्वभाव से सरण करनेवाली उषारूप किरणें हैं, उनका जार=जारयिता और वह इन्द्र=विद्युत् का भाई और मेरा मित्र है, जिसका भाव यह है कि सूर्य्य अपनी आकर्षणशक्ति से पृथ्वी को धारण करता और अन्धकार से मिश्रित उषाकाल को जलाकर अपने प्रकाश को उत्पन्न करता है। यहाँ “स्वसृ” शब्द का अर्थ बहिन नहीं, किन्तु “सप्त स्वसारो अभिसंनवन्ते यत्र गवां निहिताः सप्त सप्त” ऋग्० १।१६४।३ इस मन्त्र में सूर्य्य की किरणों का नाम “स्वसा” है, जो मन्त्र के भाष्य में स्पष्ट है। इसी प्रकार “माता पितरमुत आव भाज” ऋग्० १।१६४।८ इस मन्त्र के भाष्य में माता का अर्थ विस्तृत क्षेत्रवती भूमि है, जननी नहीं। वास्तव में वेदों के आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक तीन प्रकार के अर्थ हैं, जिनका तत्त्व न समझकर अल्पदर्शी लोग उलटे अर्थ कर देते हैं, जिससे पाठकों की दृष्टि में वेद निन्दित समझे जाते हैं।या यों कहो कि लौकिक संस्कृत के अमरकोश की रीति से “स्वसा” शब्द का अर्थ बहिन तथा “माता” शब्द का अर्थ जननी ही होता है, इस लिये लोगों को भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि “मातुर्दिधिषुमब्रवम्” इत्यादि मन्त्रों में माता तथा बहिन की गालियें ही गायन की गई हैं, परन्तु वास्तव में यह बात नहीं। उनको इस अल्पदृष्टि को छोड़कर उदारदृष्टि से वेदाशय का विवरण करना चाहिये और विलसन, ग्रिफिथ तथा मैक्समूलर आदि विदेशी और महीधर तथा सायणादि स्वदेशी अर्वाचीन भाष्यकारों का अनुकरण न करते हुए “परोक्षकृताः प्रत्यक्षकृताश्च मन्त्रा भूयिष्ठा अल्पश आध्यात्मिकाः” निरु० ५।१ इत्यादि निरुक्त तथा निघण्टु को देखकर वेदों का मुख्यार्थ करना चाहिये, जिससे वेदों का गौरव बढ़े और सम्पूर्ण मनुष्य वेदानुयायी होकर सुखसम्पत्ति को प्राप्त हों ॥३४॥इति प्रथमं सूक्तं षोडशो वर्गश्च समाप्तः ॥यह पहला सूक्त और सोलहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥