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अन्व॑स्य स्थू॒रं द॑दृशे पु॒रस्ता॑दन॒स्थ ऊ॒रुर॑व॒रम्ब॑माणः । शश्व॑ती॒ नार्य॑भि॒चक्ष्या॑ह॒ सुभ॑द्रमर्य॒ भोज॑नं बिभर्षि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

anv asya sthūraṁ dadṛśe purastād anastha ūrur avarambamāṇaḥ | śaśvatī nāry abhicakṣyāha subhadram arya bhojanam bibharṣi ||

पद पाठ

अनु॑ । अ॒स्य॒ । स्थू॒रम् । द॒दृ॒शे॒ । पु॒रस्ता॑त् । अ॒न॒स्थः । ऊ॒रुः । अ॒व॒ऽरम्ब॑माणः । शश्व॑ती । नारी॑ । अ॒भि॒ऽचक्ष्य॑ । आ॒ह॒ । सुऽभ॑द्रम् । अ॒र्य॒ । भोज॑नम् । बि॒भ॒र्षि॒ ॥ ८.१.३४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:1» मन्त्र:34 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:16» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:34


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शिव शंकर शर्मा

इस अवस्था में हृदय में निगूढ़ दैवी वाणी क्या कहती है, यह इससे दिखलाया जाता है।

पदार्थान्वयभाषाः - (शश्वती) जीवात्मा के साथ सदा स्थायिनी (नारी) बुद्धिरूपा या वाग्रूपा नारी (अभिचक्ष्य) आत्मा को ईश्वर की ओर आसक्त देखकर (आह) मानो, कहती है कि (अर्य) हे स्वामिन् ! (सुभद्रम्) समाधिरूप कल्याणकारी सुन्दर (भोजनम्) भोजन को आप इस समय (बिभर्षि) धारण किए हुए हैं। (अस्य) उस आपके (पुरस्तात्) आगे वह भोजन (स्थूरम्) स्थूल=बहुत ढेर (अनु+ददृशे) दीखता है। आप इस समय कैसे हैं (अनस्थः) परमात्मा में निमग्न तथा (अवरम्बमाणः) समाधिस्थ होने के कारण अधोमुख। इसी प्रकार आपको सदा रहना चाहिये। और मैं इससे बहुत प्रसन्ना हूँ ॥३४॥
भावार्थभाषाः - जब उपासक धीरे धीरे उसी के अनुग्रह से उसकी विभूति को कुछ-कुछ जानने में समर्थ होता है, तब उसके अन्तःकरण में सर्व भाव बदलते जाते हैं। उसके अन्तःकरण से शत्रुता भाग जाती है। ईर्ष्या के सब बीज दग्ध हो जाते हैं। समबुद्धि उपस्थित होती है। यह मेरा देशी और यह विदेशी है, यह भाव प्रलीन हो जाता है। स्वदेशीय पालनीय हैं और विदेशीय घातनीय हैं। तब ही हमारे देश के आदमी सुखी होंगे, ये सर्व प्राणी, पशु, मत्स्य, पक्षी और सरीसृप आदि मनुष्यजाति के कल्याण के लिये सृष्ट हैं। इसलिये ये सफल जीव मनुष्य के कार्य में नियोजनीय हैं। उस मनुष्य जाति के लिये उनके हनन करने में भी कोई दोष नहीं और उनके भक्षण में भी कोई पाप नहीं, इस प्रकार के सब विपरीत विचार नष्ट हो जाते हैं। किन्तु सर्वजीव समान हैं। सर्व परस्पर भाई हैं, यह कल्याणी मति उदित होती है। एवञ्च उस काल में शनैः-शनैः वह उपासक जगत् के समस्त व्यापारों से विरत होकर परमात्मचिन्तन में आसक्त हो जाता है। तब उसको अन्य कुछ कर्तव्य भी नहीं रहता है। तब वह आनन्द का अनुभव करता रहता है। कोई अविद्या उसको व्यथित नहीं कर सकती। इस अवस्था में सब इन्द्रियों का एक ही उद्देश हो जाता है। तब मानो, यह बुद्धिरूपा नारी भी कृतार्था होकर अपने स्वामी जीवात्मा की स्तुति करने लगती है। यही भाव इस ऋचा से वेद दिखलाता है ॥३४॥
टिप्पणी: जिस-जिस सूक्त वा ऋचा की द्रष्ट्री ऋषिका स्त्रीजाति है। उस-उस का आशय भाष्यकारों की ओर से अच्छा नहीं किया गया है। प्रथम मण्डल में भावयव्य की स्त्री रोमशा और अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा दो ऋषिकाएँ मानी गई हैं। १।१२६।७ की ऋषिका रोमशा है और १।१७९ सूक्त की कई एक ऋचाओं की द्रष्ट्री लोपामुद्रा है। इसी प्रकार शश्वती, घोषा, अपाला, सूर्य्या, उर्वशी और इन्द्राणी आदि अनेक ऋषिकाएँ कही जाती हैं। इन सब में प्रायः रति की वार्ताएँ और दोष कहे गये हैं। विदेशी अनुवादकों ने प्रायः इनका अनुवाद प्रचलित भाषा में न करके अप्रचलित ग्रीक भाषादिकों में किया है। मैंने वैदिक-इतिहासार्थ-निर्णय नाम के ग्रन्थ में बहुतों का अर्थ दिखलाया है। यह अन्तिम ऋचा सम्पूर्ण सूक्त का आशय और फल प्रकट करती है। १−२९ ऋचा तक केवल प्रार्थनापरक ऋचाएँ हैं। ३० और ३१ साक्षात् मानो ईश्वर का वचन है। ३२ से ३३ तक प्रार्थना करने से क्या फल प्राप्त होता है, यह दिखलाया गया है। अन्तिम ऋचा में आलङ्कारिक वर्णन आता है। मानो आत्मस्थ जीव को देखकर अतिप्रसन्न हो स्वयं बुद्धि या वाणी आत्मा से कहती है। भोजन−जैसे इस स्थूल शरीर के लिये अन्न भोजन है, वैसे ही जीवात्मा का भोजन ईश्वरसम्बन्धी श्रवण, मनन और निदिध्यासन आदि विचार ही हैं। सायण ने इस ऋचा का अर्थ बहुत बीभत्स किया है। इसकी ऋषिका शश्वती नाम की स्त्री है, अतः इसका अर्थ भी शश्वती और निजपति का परस्पर आलापपरक करते हैं। इसी प्रकार प्रथम मण्डल सूक्त १२५ के षष्ठ और सप्तम मन्त्रों का भी अर्थ निन्दनीय किया है। केवल सायण ही नहीं, किन्तु यास्काचार्य आदि भी इस विषय में चिन्तनीय हैं। इसकी ऋषिका रोमशा है ॥३४॥
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आर्यमुनि

अब परमात्मा को भोग्य पदार्थों का “आकर” कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) इस परमात्मा का कार्य्यभूत (स्थूरं) स्थूल=प्रत्यक्षयोग्य (अनस्थः) नश्वर (ऊरुः) अति विस्तीर्ण (अवरम्बमाणः) अवलम्बमान यह ब्रह्माण्ड (पुरस्तात्) आगे (अनु, ददृशे) दृष्टिगोचर हो रहा है (अभिचक्ष्य) उसको देखकर (शश्वती, नारी) नित्या प्रकृतिरूप स्त्री (आह) कहती है कि (अर्य) हे दिव्यगुणसम्पन्न परमात्मन् ! आप (सुभद्रं) सुन्दर कल्याणमय (भोजनं) भोगयोग्य पदार्थों के समूह को (बिभर्षि) धारण करते हैं ॥३४॥
भावार्थभाषाः - कूटस्थनित्य, नित्य, अनित्य, मिथ्या तथा तुच्छ, इस प्रकार पदार्थों की पाँच प्रकार की सत्ता पाई जाती है, जैसा कि ब्रह्म कूटस्थनित्य, प्रकृति तथा जीव केवल नित्य, यह कार्य्यरूप ब्रह्माण्ड अनित्य, रज्जु सर्पादिक प्रातिभासिक पदार्थ मिथ्या और शशशृङ्ग, वन्ध्यापुत्रादि तुच्छ कहे जाते हैं, इसी प्रकार इस मन्त्र में इस ब्रह्माण्ड को “अनस्थ” शब्द से अनित्य कथन किया है, जैसा कि “न आ सर्वकालमभिव्याप्य तिष्ठतीत्यनस्थः” इस व्युत्पत्ति से “अनस्थ” का अर्थ सब काल में न रहनेवाले पदार्थ का है, “अ” का व्यत्यय से ह्रस्वादेश हो गया है अर्थात् जो परिणामी नित्य हो, उसको “अनस्थ” शब्द से कहा जाता है। इसी भाव को इस मन्त्र में वर्णन किया गया है कि यह कार्य्यरूप ब्रह्माण्ड अनस्थ=सदा स्थिर रहनेवाला नहीं। यद्यपि यह अनित्य है, तथापि ईश्वर की विभूति और जीवों के भोग का स्थान होने से इसको भोजन कथन किया गया है।यहाँ अत्यन्त खेद से लिखना पड़ता है कि “भोजन” के अर्थ सायणाचार्य्य ने उपस्थेन्द्रिय के किये हैं और “अवरम्बमाण” के अर्थ लटकते हुए करके मनुष्य के गुप्तेन्द्रिय में संगत कर दिया है, इतना ही नहीं किन्तु “स्थूल” शब्द से उसको और भी पुष्ट किया है। केवल सायणाचार्य्य ही नहीं, इनकी पदपद्धति पर चलनेवाले विलसन तथा ग्रिफिथ आदि योरोपीय आचार्य्यों ने भी इसके अत्यन्त निन्दित अर्थ किये हैं, जिनको सन्देह हो, वे उक्त आचार्य्यों के भाष्यों का पाठ कर देखें, अस्तु−हम यहाँ बलपूर्वक लिखते हैं कि “भोजन” वा “अवरम्बमाण” शब्दों के अर्थ किसी कोश अथवा व्याकरण से अश्लील नहीं हो सकते। अधिक क्या, हम इस विषय में सायणाचार्य्य के भाष्य का ही प्रमाण देते हैः− देवी दिवो दुहितरा सुशिल्पे उषासानक्ता सदतां नियोनौ। आवां देवास उशती उशन्त उरौ सीदन्तु सुभगे उपस्थे॥ ऋग्० १०।७०।६इस मन्त्र में “उषा” को देवी=द्योतमान द्युलोक की शक्ति कहा गया है, “योनि” का अर्थ यज्ञस्थान और “उपस्थ” का अर्थ समीपस्थ किया है अर्थात् जब उषारूप देवी योनि=यज्ञस्थान के उपस्थ=समीप प्राप्त होती है, उस समय ऋत्विगादि यज्ञकर्ताओं को यज्ञ का प्रारम्भ करना चाहिये। यदि कोई इन अर्थों को इस प्रकार बिगाड़ना चाहता कि “नार्यभिवक्ष्याह सभद्रमर्य भोजनं बिभर्षि”=हे पति ! जो तू पहले नपुंसक था, अब उपस्थेन्द्रियरूप सुन्दर भोजन को धारण किये हुए है, तो क्या योनि, उपस्थ तथा उरु इन शब्दों के आ जाने से पूर्वोक्त अर्थ को न बिगाड़ देता, परन्तु ऐसा नहीं किया। यदि यह कहा जाय कि इस मन्त्र में “नारी” शब्द आया है, इसलिये इसके सहचार से नपुंसक की कथा तथा सुभद्र=भोजन के अर्थ उपस्थेन्द्रिय के ही हो सकते हैं अन्य नहीं, इसका उत्तर यह है कि “अर्चन्ति नारीरपसो न विष्टिभिः” ऋग्० १।९–२।३ इस मन्त्र के अर्थ में सायणाचार्य को नारी का अर्थ “स्त्री” करना चाहिये था, परन्तु नारी का अर्थ यौगिक किया है, जैसा कि “नारीर्नेत्र्यः”=नृ नये, ॠदोरप्, नृनरयोर्वृद्धिश्च, शार्ङ्गरवादिषु पाठात् ङीन्”=नयनकर्त्री उषा देवी यहाँ नारी है। जब उषाकाल का नाम नारी हो सकता है तो फिर “सत्वरजस्तमः” इन तीनों गुणों की माता अनादिसिद्ध प्रकृति का नाम नारी क्यों नहीं हो सकता ? हमारे पक्ष में प्रबल तर्क यह है कि नारी का शश्वती विशेषण है, जो अनादिसिद्ध प्रकृति को कथन करता है, किसी व्यक्तिविशेष को नहीं।इससे भी बढ़कर हमारे पक्ष की पोषक अन्य युक्ति यह है कि “अर्य” शब्द मन्त्र में ईश्वर का वाचक है, जिसको निरुक्त और निघण्टु अपनी कण्ठोक्ति से ईश्वर का वाचक मानते हैं, अस्तु।इसी प्रकार अन्य मन्त्रों के अर्थ भी वेदानभिज्ञ भाष्यकारों ने बहुत प्रकार से अनेक स्थलों में बिगाड़े हैं, जिनको यथास्थान भले प्रकार दर्शाया गया है, अब हम उनमें से एक दो मन्त्रों को उदाहरणार्थ यहाँ उद्धृत करते हैं− यदस्या अहु भेद्याः कृधु स्थूलमुपातसत्। मुष्काविदस्या एजतो गोशफे शकुलाविव॥ यजु० २३।२८ इस मन्त्र में “स्थूल” और “मुष्क” शब्द आ जाने से महीधर ने ऐसे अश्लील अर्थ किये हैं, जिसको पढ़ने तथा सुनने से भी घृणा होती है। जिनको सन्देह हो, वे महीधरभाष्य पढ़कर देखें। घृणास्पद होने से हम उस अर्थ को यहाँ उद्धृत नहीं करते। वास्तव में बात यह है कि वेद के आशय को विना समझे जो लोग प्राकृतदृष्टि से वेदों के अर्थ करते हैं, वे महापाप के भागी होते हैं, जैसा किः− मातुर्दिधिषुमब्रवं स्वसुर्जारः शृणोतु नः। भ्रातेन्द्रस्य सखा मम॥ ऋग्० ६।५५।५इस मन्त्र का यदि अर्थ विना विचार से किया जाए, तो सीधा गाली प्रतीत होता है कि “मैं माता के दिधिषु=दूसरे पति को कहता हूँ कि वह स्वसुर्जार=बहिन का जार मेरे वचन को सुने, जो इन्द्र का भाई और मेरा मित्र है” यह अश्लील अर्थ किया है, परन्तु वास्तव में ऋग्वेद में जहाँ इस विराट् के तेजोमण्डल सूर्य्य का वर्णन किया गया है, उस प्रकरण का यह मन्त्र है, जिसका सत्यार्थ यह है कि मैं मातुर्दिधिषु=मानकर्त्री पृथिवी के धारण करनेवाले सूर्य्य को लक्ष्य करके कहता हूँ कि “स्वसुः=स्वयं सरतीति स्वसा”=जो अपने स्वभाव से सरण करनेवाली उषारूप किरणें हैं, उनका जार=जारयिता और वह इन्द्र=विद्युत् का भाई और मेरा मित्र है, जिसका भाव यह है कि सूर्य्य अपनी आकर्षणशक्ति से पृथ्वी को धारण करता और अन्धकार से मिश्रित उषाकाल को जलाकर अपने प्रकाश को उत्पन्न करता है। यहाँ “स्वसृ” शब्द का अर्थ बहिन नहीं, किन्तु “सप्त स्वसारो अभिसंनवन्ते यत्र गवां निहिताः सप्त सप्त” ऋग्० १।१६४।३ इस मन्त्र में सूर्य्य की किरणों का नाम “स्वसा” है, जो मन्त्र के भाष्य में स्पष्ट है। इसी प्रकार “माता पितरमुत आव भाज” ऋग्० १।१६४।८ इस मन्त्र के भाष्य में माता का अर्थ विस्तृत क्षेत्रवती भूमि है, जननी नहीं। वास्तव में वेदों के आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक तीन प्रकार के अर्थ हैं, जिनका तत्त्व न समझकर अल्पदर्शी लोग उलटे अर्थ कर देते हैं, जिससे पाठकों की दृष्टि में वेद निन्दित समझे जाते हैं।या यों कहो कि लौकिक संस्कृत के अमरकोश की रीति से “स्वसा” शब्द का अर्थ बहिन तथा “माता” शब्द का अर्थ जननी ही होता है, इस लिये लोगों को भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि “मातुर्दिधिषुमब्रवम्” इत्यादि मन्त्रों में माता तथा बहिन की गालियें ही गायन की गई हैं, परन्तु वास्तव में यह बात नहीं। उनको इस अल्पदृष्टि को छोड़कर उदारदृष्टि से वेदाशय का विवरण करना चाहिये और विलसन, ग्रिफिथ तथा मैक्समूलर आदि विदेशी और महीधर तथा सायणादि स्वदेशी अर्वाचीन भाष्यकारों का अनुकरण न करते हुए “परोक्षकृताः प्रत्यक्षकृताश्च मन्त्रा भूयिष्ठा अल्पश आध्यात्मिकाः” निरु० ५।१ इत्यादि निरुक्त तथा निघण्टु को देखकर वेदों का मुख्यार्थ करना चाहिये, जिससे वेदों का गौरव बढ़े और सम्पूर्ण मनुष्य वेदानुयायी होकर सुखसम्पत्ति को प्राप्त हों ॥३४॥इति प्रथमं सूक्तं षोडशो वर्गश्च समाप्तः ॥यह पहला सूक्त और सोलहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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शिव शंकर शर्मा

अस्यामवस्थायां हृदि निगूढा दैवी वाणी किं वक्तीति प्रदर्शयत्यनया।

पदार्थान्वयभाषाः - शश्वती=जीवात्मना सह सदा स्थायिनी। नारी=बुद्धिरूपा वाग्रूपा वा स्त्री। आत्मानं। परमात्माभिमुखीनम्। अभिचक्ष्य=अभि=अभितः परितो लक्षयित्वा=दृष्ट्वा। आह=ब्रवीति मनसि। हे अर्य्य=स्वामिन्=आत्मन् ! सुभद्रम्=परमेश्वराभिमुखनिगमनरूपं सुशोभनम्। भोजनम्=स्वपोषकं समाधिप्रभृतिकल्याणकरं भोजनम्। बिभर्षि=धारयसि। हे स्वामिन् ! अस्य तव। पुरस्तादग्रे। स्थूरम्=स्थूलम्। प्रवृद्धं=पुञ्जस्थं भोजनम्। अनुददृशे=अनुदृश्यते। कीदृशस्त्वम्। अनस्थः=अनिति= प्राणयति=जीवयति जगत् सोऽनः परमात्मा=अने परमात्मनि तिष्ठतीति अनस्थः। यद्वा तिष्ठतीति स्थः। न स्थः अस्थः। न अस्थः अनस्थः। स्थिर इति यावत्। समाधौ स्थिरः। पुनः ऊरुः=परमात्मबोधेन विस्तीर्णः। पुनः। अवरम्बमाणः=ईश्वरमभिलक्ष्य अधोमुखीनः। समाहितो हि अवाङ्मुखस्तिष्ठति ॥३४॥
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आर्यमुनि

अथ परमात्मनः भोग्यपदार्थानाम् आकरत्वं वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) अस्य परमात्मनः कार्यभूतं (स्थूरं) स्थूलं प्रत्यक्षयोग्यं (अनस्थः) अनित्यं (ऊरुः) विस्तीर्णं (अवरम्बमाणः) परमात्मशक्त्यावलम्बमानं (पुरस्तात्) अग्रवर्ति (अनु, ददृशे) अनुदृश्यते (अभिचक्ष्य) तद्दृष्ट्वा (शश्वती, नारी) नित्या प्रकृतिरूपा नारी (आह) ब्रूते (अर्य) हे परमात्मन् ! त्वं (सुभद्रं) सुन्दरं (भोजनं) भोगयोग्यपदार्थसमूहं (बिभर्षि) धारयसि ॥३४॥