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स्तु॒हि स्तु॒हीदे॒ते घा॑ ते॒ मंहि॑ष्ठासो म॒घोना॑म् । नि॒न्दि॒ताश्व॑: प्रप॒थी प॑रम॒ज्या म॒घस्य॑ मेध्यातिथे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

stuhi stuhīd ete ghā te maṁhiṣṭhāso maghonām | ninditāśvaḥ prapathī paramajyā maghasya medhyātithe ||

पद पाठ

स्तु॒हि । स्तु॒हि । इत् । ए॒ते । घ॒ । ते॒ । मंहि॑ष्ठासः । म॒घोना॑म् । नि॒न्दि॒तऽअ॑श्वः । प्र॒ऽप॒थी । प॒र॒म॒ऽज्याः । म॒घस्य॑ । मे॒ध्य॒ऽअ॒ति॒थे॒ ॥ ८.१.३०

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:1» मन्त्र:30 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:15» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:30


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शिव शंकर शर्मा

इस ऋचा से साक्षात् परमात्मोपदेश दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (मेध्यातिथे) हे परमात्मपूजक ! हे पूज्यातिथे ! तू प्रथम (निन्दिताश्वः) चञ्चलेन्द्रिय का निरादर करनेवाला बन। इन्द्रियों को वश में कर और (प्रपथी) श्रेष्ठमार्गानुगामी हो और (परमज्यः) परमवस्तु का विजय करनेवाला हो अर्थात् तेरा मन सदा उच्चता की ओर जाय। ऐसा होकर तब तू (स्तुहि) मेरी स्तुति कर (स्तुहि+इत्) मेरी स्तुति ही कर। इससे क्या होगा, सो कहते हैं। तब (घ) निश्चय (एते) ये दृश्यमान स्थावर और जङ्गम पदार्थ (मघोनाम्) धनवानों के मध्य (ते) तेरे लिये (मघस्य) धन के (मंहिष्ठासः) अतिशय धन देनेवाले होंगे। अर्थात् तू सब पदार्थों से ज्ञानरूप धन प्राप्त कर सकता है और तृप्त रहेगा ॥३०॥
भावार्थभाषाः - प्रथम इन्द्रियों को जीत श्रेष्ठमार्ग का आलम्ब कर उत्कृष्टमना बन, तब परमदेव की उपासना कर। तब सब पदार्थ स्थावर और जङ्गम तुझे आह्लादित करेंगे, यह जान ॥३०॥
टिप्पणी: १−इस मण्डल में दानस्तुतियाँ अधिक हैं। और वे प्रायः सूक्त के अन्त में आती हैं। इस मण्डल के प्रथम सूक्त के ३० वें, द्वितीय सूक्त के ४१ वें, तृतीय सूक्त के २१वें, चतुर्थ सूक्त के १९ वें, पञ्चम सूक्त के ३७ वें, षष्ठ सूक्त के ४६ वें मन्त्र से दान स्तुति प्रारम्भ होती है और अजमेरस्थ वैदिक यन्त्रालय के मुद्रित पुस्तक में देवता इस प्रकार लिखा है−आसङ्गस्य दानस्तुतिः। विभिन्दोर्दानस्तुतिः। पाकस्थाम्नः कौरयाणस्य दानस्तुतिः। कुरुङ्गस्य दानस्तुतिः। चैद्यस्य कशोर्दानस्तुतिः। तिरिन्दरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिः। इसके अतिरिक्त ८।१९ वें सूक्त में ‘त्रसदस्योर्दानस्तुतिः। ८।२१ वें सूक्त में चित्रस्य दानस्तुतिः। ८।२४ वें सूक्त में वरोः सौषाम्णस्य दानस्तुतिः। ८।४६ वें सूक्त में पृथुश्रवसः कानीतस्य दानस्तुतिः। ८।५५ वें सूक्त में प्रस्कण्वस्य दानस्तुतिः। ८।५६ वें सूक्त में प्रस्काण्वस्य दानस्तुतिः। ८।७४ वें सूक्त में श्रुतवर्ण आर्क्षस्य दानस्तुतिः’ विद्यमान है। वेद के सम्बन्ध में जितने ग्रन्थ वर्तमान काल में मिलते हैं और इन पर जो टीका टिप्पणी करनेवाले हैं, उन सबकी प्रायः एक ही सम्मति है। वे इन मन्त्रों को इतिहास में लगाते हैं और आसङ्ग, विभिन्दु, पाकस्थामा, कुरुङ्ग, कशु, तिरिन्दर, त्रसदस्यु, वरु पृथुश्रवा, प्रस्कण्व और श्रुतवर्ण ये सब दानी महादानी राजाओं के नाम हैं। ऋषियों ने इनकी स्तुति करके बहुत धन पाए, उन ही उपकारी राजाओं की चर्चा अपने-२ सूक्त में ऋषिगण करते हैं, यह उन लोगों का सिद्धान्त है। परन्तु यह वास्तव में क्या है, इस पर अधिक मीमाँसा करनी चाहिये। मैंने जो विचार प्रकट किया है, उसको आप लोग सर्वत्र देखिये। आगे की टिप्पणी पढ़ने से बहुत विषय विस्पष्ट होता जायगा ॥ इति ॥३०॥
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आर्यमुनि

अब “मेध्यातिथि” को परमात्मा का ऐश्वर्य्यवर्णन करते हुए उसी का उपासन कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (मेध्यातिथे) हे पूज्य अभ्यागत ! (मघोनां, मंहिष्ठासः) ऐश्वर्य्यशालियों में श्रेष्ठ (एते) यह परमात्मा है, अतः (ते) उसकी (स्तुहि, स्तुहि) वार-वार स्तुति कर (इत्, घ) निश्चय करके वह परमात्मा (निन्दिताश्वः) सब व्यापकों को अपनी व्यापकशक्ति से तिरस्कार करनेवाला (प्रपथी) विस्तृत मार्गवाला (परमज्याः) बड़े से बड़े शत्रुओं का नाशक और (मघस्य) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्यों का प्रदाता है •॥३०॥
भावार्थभाषाः - हे अभ्यागत ! वह पूर्ण परमात्मा, जिसकी शक्ति सम्पूर्ण शक्तियों से बलवान्, सम्पूर्ण व्यापक पदार्थों को अपनी व्यापक शक्ति से तिरस्कृत करनेवाला और वही सम्पूर्ण ऐश्वर्य्यों का भण्डार है, तू उसी की उपासना कर। यहाँ मेध्यातिथि किसी व्यक्तिविशेष का नाम नहीं, किन्तु वेदविद्या के ज्ञाता पूज्य अतिथि का नाम मेध्यातिथि है, जैसा कि “मेधितुं संगन्तुं योग्यो मेध्यः स चासावतिथिः” “मेधृ संगमे−ऋहलोर्ण्यत्”=संगति करने योग्य अतिथि को “मेध्यातिथि” कहते हैं, इसी प्रकार वसिष्ठ, विश्वामित्र, भरद्वाज तथा कण्वादि नाम वेद में आते हैं, जो किसी व्यक्तिविशेष के नाम नहीं, किन्तु इनके यौगिक अर्थ हैं, जिनको यथावसर लिखा जायगा, जिससे वेद में व्यक्तिविशेष की भ्रान्ति न हो ॥३०॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

निन्दिताश्व का प्रपथी बनना

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे जीव (स्तुहि स्तुहि इत्) = तू स्तवन करनेवाला बन और स्तवन करनेवाला बन ही । इस स्तवन के करने पर (एते) = ये (ते) = तेरे इन्द्रियाश्व (घा) = निश्चय से (मघोनां मंहिष्ठासः) - [मघ-मख] यज्ञशील पुरुषों में भी दातृतम होते हैं। प्रभु-स्तवन से लोभ विनष्ट होता है, दान की वृत्ति पुष्पित होती है। [२] प्रभु-स्तवन से पूर्व जो व्यक्ति (निन्दिताश्वः) = कुत्सित इन्द्रियाश्वोंवाला बना हुआ था, वह (प्रपथी) = प्रकृष्ट मार्ग पर चलनेवाला बनता है, (परमज्याः) = उत्कृष्ट शत्रुओं को भी विनष्ट करनेवाला होता है। हे (मेध्यातिथे) = मेध्य प्रभु को अतिथि बनानेवाले जीव ! इस स्तवन से तू (मघस्य) = यज्ञ का हो जाता है, यज्ञमय तेरा जीवन बन जाता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु-स्तवन करने से इन्द्रियाँ निन्दित वृत्तियों का परित्याग करके शुभ मार्ग की ओर चलती हैं।
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शिव शंकर शर्मा

अनया साक्षात्परमात्मोपदेशं दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - भूयो भूयो याच्यमानः=प्रार्थ्यमानश्चेन्द्रः किं प्रतिवचनं ददातीत्यनया प्रदर्श्यते। यद्यपि नहि साक्षादेव भगवान् कमपि प्रति किमपि ब्रवीति किन्तु स्वात्मनि सतामीश्वरपरायणानां योऽनुभवो जायते तदेवेश्वरप्रतिवचनमिति मन्यताम्। ऊनत्रिंशता ऋग्भिः स्तुतः प्रसन्नश्च अनया ऋचा इदमुपदिशतीव। यथा। हे मेध्यातिथे=अतति सर्वत्र व्याप्नोतीत्यतिथिरात्मा परमात्मा। मेध्यः पूज्योऽतिथिर्यस्य सः। तत्सम्बोधने। हे परमात्मपूजक ! हे पूज्यातिथे ! त्वम्। प्रथमं निन्दिताश्वो भव। निन्दिता अश्वाश्चञ्चलेन्द्रियाणि येन सः। चञ्चलेन्द्रियाणां वशीभूतो मा भूः। तानि हि जनान् कुपथं नयन्ति। त्वं पुनः। प्रपथी=प्रकृष्टः पन्थाः प्रपथस्तद्वान्=प्रकृष्टमार्गानुगामी भव। पुनः। परमज्या भव=परममुत्कृष्टं वस्तु जयतीति परमज्याः=उत्कृष्टमना भवेत्यर्थः। ईदृशो भूत्वा। स्तुहि माम्। मां स्तुहि इत्=मां स्तुह्येव। अभ्यासो भूयोऽर्थद्योतकः। यदा मां स्तोष्यसि। तदा। एते घ=एते खलु दृश्यमानाः स्थावरा जङ्गमाश्च पदार्थाः। मघोनां=धनवतां मध्ये। मघस्य=सर्वप्रकारस्य धनस्य। मंहिष्ठासः=दातृतमास्तव भविष्यन्ति। सर्वेभ्यः पदार्थेभ्यो ज्ञानधनं निर्गमयितुं समर्थो भविष्यसीत्यर्थः ॥३०॥
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आर्यमुनि

अथ मेध्यातिथिं प्रति परमात्मैश्वर्यवर्णनपूर्वकं तदुपासना उपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (मेध्यातिथे) हे पूज्याभ्यागत ! (मघोनां, मंहिष्ठासः) ऐश्वर्य्यवतां श्रेष्ठः (एते) अयं परमात्मा अतः (स्तुहि, स्तुहि) पुनः पुनः तं स्तुहि (इत्) एव (घ) खलु यः परमात्मा (निन्दिताश्वः) सर्वेभ्यो व्यापकेभ्यो व्यापकतमः (प्रपथी) दीर्घमार्गः (परमज्याः) महतामपि शत्रूणां नाशकः (अघस्य) ऐश्वर्यस्य प्रदाता चास्ति ॥३०॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Medhyatithi, venerable traveller on life’s highway, O guest, O host, pray to Indra, adore him, and these too around you, all richest of the rich and mightiest of the mighty, should adore him: omnipresent, faster than the fastest, instantly moving all round over paths of infinity, commanding the rule and dispensation of the highest wealth and power of existence.