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आ त्वा॒ रथे॑ हिर॒ण्यये॒ हरी॑ म॒यूर॑शेप्या । शि॒ति॒पृ॒ष्ठा व॑हतां॒ मध्वो॒ अन्ध॑सो वि॒वक्ष॑णस्य पी॒तये॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā tvā rathe hiraṇyaye harī mayūraśepyā | śitipṛṣṭhā vahatām madhvo andhaso vivakṣaṇasya pītaye ||

पद पाठ

आ । त्वा॒ । रथे॑ । हि॒र॒ण्यये॑ । हरी॒ इति॑ । म॒यूर॑ऽशेप्या । शि॒ति॒ऽपृ॒ष्ठा । व॒ह॒ता॒म् । मध्वः॑ । अन्ध॑सः । वि॒वक्ष॑णस्य । पी॒तये॑ ॥ ८.१.२५

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:1» मन्त्र:25 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:14» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:25


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शिव शंकर शर्मा

पुनः उसी विषय को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - यह सृष्टि दो प्रकार दीखती है। कोई मनुष्य पश्वादि जङ्गमरूपा और कोई पर्वत वृक्षादि स्थावररूपा। ये ही दो सृष्टियाँ परमात्मा को प्रकाशित करती हैं, अतः ये मानो, अश्वादिवत् उसके वाहन हैं। वे हरि शब्द से पुकारे जाते हैं, क्योंकि वे मानो, उसे एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाते हैं। स्थावर वृक्ष आदि अपने प्रभाव से जङ्गम जीव को तथा जङ्गम स्थावर को अपनी ओर खैंचते हैं, अतः वे दोनों हरि हैं। सुगम और सुबोध के लिये जगत् को दो भागों में बाँटकर इस परमात्मा के दो हरि हैं, ऐसा कहा जाता है। प्रायः वेदों में अधिक दो ही हरियों की चर्चा आती है। क्वचित् व्यष्टिरूप से जगत् को विभक्त कर इनके वाहनस्वरूप अनेक हरि हैं, ऐसा भी वर्णन आया है। इसी कारण पूर्व ऋचा में अनेक और इस में दो हरि कहे गए हैं। अथ ऋगर्थ−हे इन्द्र ! (मयूरशेप्या) मयूर के समान विविध वर्णवाले (शितिपृष्ठा) श्वेतपृष्ठ (हरी) हरण करनेवाले स्थावर और जङ्गमरूप दो वाहन (हिरण्यये) परस्पर हरणशील (रथे) परम रमणीय समस्त जगद्रूप रथ में, मानो, बैठाकर (त्वा) तुझको (मध्वः) मधुर (विवक्षणस्य) प्रशस्त (अन्धसः) खाद्य पदार्थ के ऊपर (पीतये) अनुग्रह के लिये (आ+वहताम्) ले आवें। हम भक्तों के निकट प्रकाशित करें ॥२५॥
भावार्थभाषाः - प्रथम यह सम्पूर्ण जगत् ही ईश्वर का रमणीय वाहन है, यह जानना चाहिये। इसी रथ पर स्थित होकर वह सब देखता है। इस रथ में स्थावर और जङ्गमरूप दो प्रकार के पदार्थ ही मानो, घोड़े नियोजित हैं। उनके विविध वर्ण नाना रूप और नाना आकृतियाँ हैं और ये विचित्र हैं। इनका अध्ययन करना चाहिये, तब ही ब्रह्मबोध की संभावना है। तब ही सर्व क्लेश नष्ट होते हैं। क्लेशों के क्षीण होने पर परमात्मा हृदय में भासित होने लगते हैं ॥२५॥
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आर्यमुनि

अब ईश्वर को अचिन्त्य प्रकृतिवाला कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (हिरण्यये, रथे) इस देदीप्यमान ब्रह्माण्ड में (मयूरशेप्या) मयूरपिच्छ के समान गम्भीर गतिवाली (हरी) आपकी आकर्षण तथा विकर्षण शक्तियें (शितिपृष्ठा) जिनकी तीक्ष्णगति है, वे (मध्वः) मधुर (अन्धसः) ब्रह्मानन्दार्थ (विवक्षणस्य) प्राप्तव्य (पीतये) तृप्ति के लिये (त्वा) आपको (आ, वहतां) अभिमुख करें ॥२५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में परमात्मा को अचिन्त्यशक्तिशाली वर्णन किया गया है अर्थात् उसके पारावार को पहुँचना सर्वथा असम्भव है, इसी अभिप्राय से यहाँ मयूरपिच्छ के दृष्टान्त से भलीभाँति स्पष्ट किया गया है कि जिस प्रकार मयूर के बर्ह=पिच्छ में नाना वर्ण की कोई इयत्ता नहीं कर सकता, इसी प्रकार ब्रह्माण्डरूप विचित्र कार्य्यों की अवधि बाँधना मनुष्य की शक्ति से सर्वथा बाहर है ॥२५॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

हरी मयूरशेप्या

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे प्रभो ! इस (हिरण्यये रथे) = मेरे हितरमणीय तेजस्विता से दीप्त शरीर-रथ में (शितिपृष्ठा) = श्वेत पृष्ठवाले, अर्थात् वासनाओं के आवरण से न मलिन हुए हुए, (मयूरशेप्या) = [मह्यां रौति] प्रभु-स्तवन द्वारा उत्तम रूप [शेप] को प्राप्त हुए हुए (हरी) = इन्द्रियाश्व (त्वा) = आपको (आवहताम्) = प्राप्त करायें। हमारी इन्द्रियाँ विषय मलिन न हों, अपितु स्तुति से दीप्त हों। और इस प्रकार ये इन्द्रियाँ अर्वाड्मुखी होती हुई प्रभु प्राप्ति का साधन बनें। [२] आपको शरीर-रथ में प्राप्त कराना इस (मध्वो) = जीवन को मधुर बनानेवाले, (अन्धसः) = आध्यातव्य अथवा जीवन के लिये अन्नरूप (विवक्षणस्य) = विशिष्ट उन्नति के साधनभूत [वक्षण= growth] सोम के (पीतये) = पान के लिये हो। हम सोम का शरीर में रक्षण करते हुए सब प्रकार से उन्नत हों।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हमारे इन्द्रियाश्व प्रभु-स्तवन द्वारा उज्ज्वल बने रहें। सोम का रक्षण करते हुए हम उन्नत हों।
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तमर्थमाह।

पदार्थान्वयभाषाः - इयं सृष्टिर्द्विधा। काचिन्मनुष्यपश्वादिजङ्गमरूपा। काचित्पर्वतवृक्षादिस्थावररूपा। इयमेव द्वयी सृष्टिः परमात्मानं प्रकाशयति। अतः। इमौ तस्याश्वौ निगद्येते। इमौ हरिशब्देन अभिधीयेते परस्परहरणशीलत्वात्। स्थावरा हि स्वप्रभावेण जङ्गमान्, जङ्गमाश्च स्थावरान् पदार्थान् आकृषन्ते। सुगमत्वात् सुबोधत्वाच्च इमौ द्वावेव विभागौ कृत्वा प्रायः सर्वत्र वर्णना भवति। क्वचिच्च व्यष्टिरूपेण सूर्य्यपृथिव्यादीनि जगन्ति विभज्य भूयांसोऽस्य हरयः सन्तीति स्तूयते। अतएव पूर्वस्यामृचि अनयोरेव स्थावरजङ्गमरूपयोः सृष्ट्योरनेकान् सूर्य्यादिविभागान् कृत्वा शतं सहस्रमस्य हरयः सन्तीत्युक्तम्। अथ ऋगर्थः−हे इन्द्र ! हिरण्यये=हरन्ति परस्परमाकृषन्ति ये ते हिरण्याः परमाणवस्तन्मये। रथे=समष्टिरूपे जगति। नियोजितौ यौ हरी=स्थावरजङ्गमलोकात्मकौ अश्वौ स्तः। तौ। त्वाम्। आवहताम्=प्रकाशयताम्=दृष्टिगोचरे कुरुताम्। कीदृशौ हरी। मयूरशेप्या=मयूरशेपौ=मयूररूपौ। यथा मयूरो विविधवर्णयुक्तः शोभनो भवति। तादृशौ। पुनः। शितिपृष्ठा=श्वेतपृष्ठौ सात्त्विकत्वात्। कस्मै प्रयोजनाय। मध्वः=मधुरस्य। विवक्षणस्य=वक्तुमिष्टस्य स्तुत्यस्य यद्वा वोढव्यस्य प्राप्तव्यस्य। अन्धसः=स्तुतिरूपस्य अन्नस्य च। पीतये=अनुग्रहाय ॥२५॥
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आर्यमुनि

अथेश्वरोऽचिन्त्यरूपत्वेन वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (हिरण्यये, रथे) ज्योतिःस्वरूपे ब्रह्माण्डे (मयूरशेप्या) मयूरपिच्छवदगम्भीरगती (हरी) तव आकर्षणविकर्षणशक्ती (शितिपृष्ठा) तीक्ष्णगती (मध्वः) मधुरस्य (अन्धसः) ब्रह्मानन्दरूपान्नस्य (विवक्षणस्य) प्राप्तव्यस्य (पीतये) पानाय (त्वा) त्वां (आवहतां) अभिमुखं कुर्वन्तु ॥२५॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - May the vibrant forces of divine energy, joined to your golden chariot of the universe with rhythmic majesty like the peacock’s feather tail and mighty power with circuitous motion of energy currents, radiate your presence here so that you may acknowledge and accept our love and homage and we experience the bliss of divine presence.