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स वा॑वृधे॒ नर्यो॒ योष॑णासु॒ वृषा॒ शिशु॑र्वृष॒भो य॒ज्ञिया॑सु । स वा॒जिनं॑ म॒घव॑द्भ्यो दधाति॒ वि सा॒तये॑ त॒न्वं॑ मामृजीत ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa vāvṛdhe naryo yoṣaṇāsu vṛṣā śiśur vṛṣabho yajñiyāsu | sa vājinam maghavadbhyo dadhāti vi sātaye tanvam māmṛjīta ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः । व॒वृ॒धे॒ । नर्यः॑ । योष॑णासु । वृषा॑ । शिशुः॑ । वृ॒ष॒भः । य॒ज्ञिया॑सु । सः । वा॒जिन॑म् । म॒घव॑त्ऽभ्यः । द॒धा॒ति॒ । वि । सा॒तये॑ । त॒न्व॑म् । म॒मृ॒जी॒त॒ ॥ ७.९५.३

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:95» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:19» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:6» मन्त्र:3


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आर्यमुनि

अब प्रसङ्गसङ्गति से पूर्वोक्त आध्यात्मिक विद्यारूप सरस्वती का ज्ञानरूप से कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) वह बोध (नर्यः) मनुष्यों के लिए और (योषणासु) स्त्रियों के लिए (वावृधे) वृद्धि को प्राप्त हुआ है और वह बोध (यज्ञियासु) यज्ञीय बुद्धिरूपी भूमियों में (वृषा) वृष्टि करनेवाला है और (शिशुः) अज्ञानादिकों का छेदन करनेवाला है, “श्यति अज्ञानादिकमिति शिशुः” “शो तनूकरणे”, (वृषभः) और आध्यात्मिक आनन्दों की वृष्टि करनेवाला है और वही (मघवद्भ्यः) याज्ञिक लोगों को (वाजिनं) बल (दधाति) देता है और (सातये) युद्ध के लिये (तन्वं) शरीर को (विमामृजीत) मार्जन करता है ॥३॥
भावार्थभाषाः - सरस्वती विद्या से उत्पन्न हुआ प्रबोधरूप पुत्र स्त्री-पुरुष को संस्कार करके देवता बनाता है और यज्ञकर्मा लोगों को याज्ञिक बनाता है। बहुत क्या, जो युद्धों में आत्मत्याग करके शूरवीर बनते हैं, उनको इतने साहसी और निर्भीक एकमात्र सरस्वती विद्या से उत्पन्न हुआ प्रबोधरूप पुत्र ही शूरवीर बनाता है, अन्य नहीं ॥३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

श्रेष्ठ पुरुष

पदार्थान्वयभाषाः - पदार्थ - नरश्रेष्ठ का वर्णन - (सः) = वह (नर्यः) = मनुष्यों में श्रेष्ठ पुरुष (यज्ञियासु) = परस्पर संग, दान-प्रतिदान द्वारा प्राप्त (योषणामु) = स्त्रियों में (वृषा) = वीर्य सेचन में समर्थ, (वृषभ:) = बलवान्, (शिशुः) = सहशायी होकर (वावृधे) = पुत्र, धन-धान्यादि से बढ़े। (सः) = वह (मघवद्भ्यः =मखवद्भ्यः) = याज्ञिकों और धनैश्वर्य-सम्पन्न राजादि के हितार्थ (वाजिनं) = धन, ज्ञानादि से सम्पन्न पुत्र को प्रजावत् (दधाति) = धारण करे। वह (सातये) = पुत्र, धन, अन्न, ज्ञानादि के लाभ एवं संग्राम के लिये भी (तन्वं) = शरीर वा आत्मा को (वि मामृजीत) = यज्ञ, दान, स्नान, उपदेश, तप आदि उपायों से शुद्ध करे।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- श्रेष्ठ पुरुष अपने पुरुषार्थ से पुत्र, धन-धान्यादि ऐश्वर्यों को बढ़ावे। राजा को समृद्धि हेतु कर दान करे, यज्ञादि कार्यों को बढ़ावे तथा विपरीत परिस्थितियों में भी यज्ञ, स्नान, उपदेश व तप आदि को न छोड़े।
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आर्यमुनि

अथ प्रसङ्गसङ्गत्या पूर्वोक्ताध्यात्मिकविद्यारूपसरस्वत्या ज्ञानमयत्वमुच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) स बोधः (नर्यः) मनुष्येभ्यः (योषणासु) स्त्रीभ्यश्च (वावृधे) वृद्धिमाप, तथा (यज्ञियासु) यज्ञीयबुद्धिभूमिषु (वृषा) वर्षितास्ति (शिशुः) अज्ञानच्छेदकः (वृषभः) ऋतानन्दस्य वर्षिता चास्ति, स एव च (मघवद्भ्यः) याज्ञिकेभ्यः (वाजिनम्) बलं (दधाति) प्रयच्छति, स एव च (सातये) युद्धाय (वि) निश्चयं (तन्वम्) शरीरं (मामृजीत) संशोध्य योग्यं करोति ॥३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - That human wealth of knowledge revealed by the eternal stream grows for humanity. It is inspiration in the divine hymns of the Veda, holy fire in the yajna vedis, destroyer of ignorance, and the shower of rains for the yajnic priests of the world of business. It bears and brings passion and ambition for the people of honour and excellence and strengthens and refines the body, mind and spirit for success and victory in the battles of life.