वांछित मन्त्र चुनें

आ यद्रु॒हाव॒ वरु॑णश्च॒ नावं॒ प्र यत्स॑मु॒द्रमी॒रया॑व॒ मध्य॑म् । अधि॒ यद॒पां स्नुभि॒श्चरा॑व॒ प्र प्रे॒ङ्ख ई॑ङ्खयावहै शु॒भे कम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā yad ruhāva varuṇaś ca nāvam pra yat samudram īrayāva madhyam | adhi yad apāṁ snubhiś carāva pra preṅkha īṅkhayāvahai śubhe kam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ । यत् । रु॒हाव॑ । वरु॑णः । च॒ । नाव॑म् । प्र । यत् । स॒मु॒द्रम् । ई॒रया॑व । मध्य॑म् । अधि॑ । यत् । अ॒पाम् । स्नुऽभिः॑ । चरा॑व । प्र । प्र॒ऽई॒ङ्खे । ई॒ङ्ख॒या॒व॒है॒ । शु॒भे । कम् ॥ ७.८८.३

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:88» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:10» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:3


0 बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जब हम (वरुणः, च) परमात्मा की (नावं) इच्छा पर (आ, रुहाव) आरूढ़ होते हैं और (यत्) जब (समुद्रं) कर्मों के अधिष्ठाता परमात्मा के (मध्यं) स्वरूप का (ईरयाव) अवगाहन करते हैं और (यत्) जब (अपां) कर्मों के (स्नुभिः) प्रेरक परमात्मा की (प्रेङ्खे) इच्छा में (चराव) विचरते हैं, तब (प्र) प्रकर्षता से (शुभे) उस मङ्गल वासना में (कं) ब्रह्मानन्द को (ईङ्खयावहै) अनुभव करते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में कर्मयोग का वर्णन किया है कि जब पुरुष अपनी इच्छाओं को ईश्वराधीन कर देता है, वा यों कहो कि निष्काम कर्मों को करता हुआ उनके फल की इच्छा नहीं करता, तब परमात्मा के भावों में विचरता हुआ पुरुष एक प्रकार के अपूर्व आनन्द को अनुभव करता है ॥३॥
0 बार पढ़ा गया

हरिशरण सिद्धान्तालंकार

जल गमन काल में भी ईश चिन्तन

पदार्थान्वयभाषाः - पदार्थ- (अहं) = मैं और (वरुणः च) = वरणीय स्वामी, दोनों दो मित्रों के समान वा पतिपत्नीवत् (यत् नावम् आ रुहाव) = जब नाव पर चढ़ें (यत् समुद्रम् मध्यम् ईरयाव) = और जब समुद्र के बीच उसको चरावें (यत् अधि अपां) = जब जलों के ऊपर (स्नुभिः चराव) = गमनशील यानों से विचरें तो (शुभे) = शोभा और (कम्) = सुख पाने के लिये (प्रेङ्खे) = झूले पर (प्रेङ्खयावहे) = हम दोनों झूलें ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- यात्रा काल में भी जब मनुष्य नाव आदि के द्वारा जलों में विचरण करता है। तब भी उस परम मित्र परमेश्वर को अपने साथ अनुभव करता हुआ उसी का मनन करे।
0 बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यदा वयं (वरुणः) परमात्मनः (नावम्) इच्छाम् (आ, रुहाव) आरोहामः, (यत्) यदा (समुद्रम्) कर्मणामधिष्ठातुः परमात्मनः (मध्यम्) रूपं (ईरयाव) अवगच्छामः (यत्) यदा च (अपाम्) कर्मणां (स्नुभिः) प्रेरयितुः ईश्वरस्य (प्रेङ्खे) इच्छायां (चराव) विचरामः तदा (प्र) प्रकर्षेण (शुभे) माङ्गलिकवासनासु (कम्) ब्रह्मानन्दम् (ईङ्खयावहै) अनुभवामः ॥३॥
0 बार पढ़ा गया

डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - And when I ride on the wings of Ananda samadhi with the presence of divine Varuna, I float through the boundless ocean of his infinite omnipresence, and when I fly over the world of karmic existence and all that goes with it, I transcend it with the divine presence and roll in the infinite ecstasy of pure bliss above the world of existence.