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ति॒स्रो द्यावो॒ निहि॑ता अ॒न्तर॑स्मिन्ति॒स्रो भूमी॒रुप॑रा॒: षड्वि॑धानाः । गृत्सो॒ राजा॒ वरु॑णश्चक्र ए॒तं दि॒वि प्रे॒ङ्खं हि॑र॒ण्ययं॑ शु॒भे कम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tisro dyāvo nihitā antar asmin tisro bhūmīr uparāḥ ṣaḍvidhānāḥ | gṛtso rājā varuṇaś cakra etaṁ divi preṅkhaṁ hiraṇyayaṁ śubhe kam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ति॒स्रः । द्यावः॑ । निऽहि॑ताः । अ॒न्तः । अ॒स्मि॒न् । ति॒स्रः । भूमिः॑ । उप॑राः । षट्ऽवि॑धानाः । गृत्सः॑ । राजा॑ । वरु॑णः । च॒क्रे॒ । ए॒तम् । दि॒वि । प्र॒ऽई॒ङ्खम् । हि॒र॒ण्यय॑म् । शु॒भे । कम् ॥ ७.८७.५

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:87» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:9» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:5


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आर्यमुनि

अब परमात्मविभूति का कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (तिस्रः, द्यावः) तीन प्रकार का द्युलोक (अस्मिन्) इस परमात्मा के (अन्तः) स्वरूप में (निहिताः) स्थिर है (तिस्रः, भूमीः) तीन प्रकार की पृथिवी जिसके (उपराः) ऊपर (षड्विधानाः) षड्ऋतुओं का परिवर्तन होता है, (एतं) इन सबको (गृत्सः) परमपूजनीय (वरुणः) सबको वश में रखनेवाले (राजा) प्रकाशस्वरूप परमात्मा ने (दिवि, प्रेङ्खम् ) द्युलोक और पृथिवीलोक के मध्य में (हिरण्ययं) ज्योतिर्मय सूर्य्य को (शुभे, कं) दीप्ति=प्रकाशार्थ (चक्रे) बनाया ॥५॥
भावार्थभाषाः - एकमात्र परमात्मा का ही यह ऐश्वर्य्य है, जिसने नभोमण्डल में अणुरूप बालु, अन्तरिक्ष निर्वातस्थान तथा द्युलोक प्रकाशस्थान, यह तीन प्रकार का द्युलोक और उपरितल, मध्य तथा रसातल, यह तीन प्रकार की पृथिवी, जिसमें षड् ऋतुयें चक्रवत् घूम-घूम कर आती हैं और पृथिवी तथा द्युलोक के मध्य में सबसे विचित्र तेजोमण्डलमय सूर्य्यलोक का निर्माण किया, जो सम्पूर्ण भूमण्डल तथा अन्य लोक-लोकान्तरों को प्रकाशित करता है, इत्यादि विविध रचना से ज्ञात होता है कि परमात्मा का ऐश्वर्य्य अकथनीय है। इस मन्त्र में विभूतिसम्पन्न वरुण को विराड्रूप से वर्णन किया गया है ॥५॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सृष्टि वरुण में स्थित है

पदार्थान्वयभाषाः - पदार्थ - (तिस्रः द्याव:) = तीनों लोक, भूमि, अन्तरिक्ष और (द्यौ अस्मिन् अन्तः निहिताः) = वरुण परमेश्वर के ही भीतर स्थित हैं और (तिस्रः भूमी:) = तीनों भूमियाँ (उपरा:) = एक दूसरे के समीप स्थित (षड् विधाना: छह) = छह प्रकार के ऋतु आदि विधानों सहित उसके ही भीतर हैं। (गृत्सः) = ज्ञान का उपदेष्टा (राजा) = सर्वोपरि शासक (वरुणः) = वरण-योग्य प्रभु ही (दिवि) = आकाश में (प्रेड्खं) = उत्तम गति से जानेवाले (एतं) = उस (हिरण्ययम्) = तेजोमय सूर्य को अन्तरिक्ष में गतिमान्, हित, रमणीय रूप वायु को और भूमि पर तेजोमय अग्नि को (शुभे) = दीप्ति, जल और कान्ति के लिये (चक्रे) = बनाता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- विद्वान् पुरुष समस्त लोकों तथा उन लोकों में उपस्थित दीप्ति, जल, कान्ति आदि सामर्थ्यो को उस व्यापक परमेश्वर में ही देखता है।
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आर्यमुनि

सम्प्रति परमात्मविभूतिरुपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (तिस्रः, द्यावः) त्रिधा द्युलोकः (अस्मिन्) अस्य परमात्मनः (अन्तः) स्वरूपे (निहिताः) स्थितोऽस्ति (तिस्रः, भूमीः) त्रिधा भूमिश्च (उपराः) यस्या उपरि (षड्विधानाः) षोढा ऋतव उत्तरोत्तरविनिमयेन वर्त्तन्ते (एतम्) एतत्सर्वं (गृत्सः) विश्वोपदेशकः (वरुणः) जगद्वशमानयन् (राजा) विराजमान ईश्वरः (दिवि, प्रेङ्खम्) द्यावापृथिव्योर्मध्ये (हिरण्ययम्) ज्योतिःस्वरूपं सूर्यं (शुभे, कम्) आकाशे प्रकाशयितुं (चक्रे) विनिर्ममे ॥५॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Three heavens of light are contained in the presence of this lord Varuna and there are three orders of the earthly globe over which there are six variations. The all - wise refulgent omnipotent ruler Varuna created all this universe including the vibrant and glorious sun in the blissful heaven high up for light of the world.