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अस॒न्नित्त्वे आ॒हव॑नानि॒ भूरि॒ भुवो॒ विश्वे॑भिः सु॒मना॒ अनी॑कैः। स्तु॒तश्चि॑दग्ने शृण्विषे गृणा॒नः स्व॒यं व॑र्धस्व त॒न्वं॑ सुजात ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asann it tve āhavanāni bhūri bhuvo viśvebhiḥ sumanā anīkaiḥ | stutaś cid agne śṛṇviṣe gṛṇānaḥ svayaṁ vardhasva tanvaṁ sujāta ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अस॑न्। इत्। त्वे इति॑। आ॒ऽहव॑नानि। भूरि॑। भुवः॑। विश्वे॑भिः। सु॒ऽमनाः॑। अनी॑कैः। स्तु॒तः। चि॒त्। अ॒ग्ने॒। शृ॒ण्वि॒षे॒। गृ॒णा॒नः। स्व॒यम्। व॒र्ध॒स्व॒। त॒न्व॑म्। सु॒ऽजा॒त॒ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:8» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:11» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सुजात) सुन्दर प्रकार प्रसिद्ध (अग्ने) विद्वन् राजन् ! (त्वे) आप के निमित्त (भुवः) पृथिवी के सम्बन्ध में (भूरि) बहुत (आहवनानि) सत्कारपूर्वक निमन्त्रण (असन्) होते हैं (विश्वेभिः) सब (अनीकैः) अच्छी शिक्षित सेनाओं के साथ (सुमनाः) प्रसन्न चित्त (स्तुतः) स्तुति को प्राप्त (गृणानः) स्तुति करनेवालों के वाक्यों को (चित्) भी (शृण्विषे) सुनते हैं सो आप (स्वयमित्) स्वयमेव (तन्वम्) शरीर को (वर्धस्व) बढ़ाइये ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! यदि आप प्रशंसित धर्मयुक्त कर्मों को करें तो सर्वत्र विजय को प्राप्त होते हुए आप वृद्धि को प्राप्त होके सब प्रजाओं को बढ़ावें ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सः राजा किं कुर्य्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे सुजाताग्ने ! त्वे भुवो भूर्याहवनान्यसन् विश्वेभिरनीकैः सुमनाः स्तुतो गृणानः सर्वेषां वाक्यानि [चित्] शृण्विषे स त्वं स्वयमित्तन्वं वर्धस्व ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (असन्) भवन्ति (इत्) एव (त्वे) त्वयि (आहवनानि) सत्कारपूर्वकनिमन्त्रणानि (भूरि) (भुवः) पृथिव्याः (विश्वेभिः) समग्रैः (सुमनाः) शोभनमनाः (अनीकैः) सुशिक्षितैस्सैन्यैः (स्तुतः) (चित्) अपि (अग्ने) विद्वन्राजन् (शृण्विषे) (गृणानः) स्तुवन् (स्वयम्) (वर्धस्व) (तन्वम्) शरीरम् (सुजात) सुष्ठु प्रसिद्ध ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! यदि भवान् प्रशंसितानि धर्म्याणि कार्याण्यकरिष्यत्तर्हि सर्वत्र विजयमानः सन् स्वयं वर्द्धित्वा सर्वाः प्रजा अवर्धयिष्यत् ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! जर तू प्रशंसित धर्मयुक्त कर्म केलेस तर सर्वत्र विजय प्राप्त करून स्वतः उन्नत होऊन सर्व प्रजेला उन्नत करशील. ॥ ५ ॥