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प्र मे॒ पन्था॑ देव॒याना॑ अदृश्र॒न्नम॑र्धन्तो॒ वसु॑भि॒रिष्कृ॑तासः । अभू॑दु के॒तुरु॒षस॑: पु॒रस्ता॑त्प्रती॒च्यागा॒दधि॑ ह॒र्म्येभ्य॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra me panthā devayānā adṛśrann amardhanto vasubhir iṣkṛtāsaḥ | abhūd u ketur uṣasaḥ purastāt pratīcy āgād adhi harmyebhyaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र । मे॒ । पन्था॑ । दे॒व॒ऽयानाः॑ । अ॒दृ॒श्र॒न् । अम॑र्धन्तः । वसु॑ऽभिः । इष्कृ॑तासः । अभू॑त् । ऊँ॒ इति॑ । के॒तुः । उ॒षसः॑ । पु॒रस्ता॑त् । प्र॒ती॒ची । आ । अ॒गा॒त् । अधि॑ । ह॒र्म्येभ्यः॑ ॥ ७.७६.२

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:76» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:23» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:2


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अमर्धन्तः) सबको अभयदान देनेवाला (वसुभिः इष्कृतासः) सूर्य्य-चन्द्रमादि वसुओं से अलङ्कृत (उषसः) सम्पूर्ण ज्योतियों का (केतुः) शिरोमणि परमात्मा (हर्म्येभ्यः) सुन्दर ज्योतियों में (पुरस्तात्) प्रथम (प्रतीची) पूर्वदिशा को (आ) भले प्रकार (अधि अगात्) आश्रयण करके (अभूत्) प्रकट होता है, उसको (अदृश्रन्) देखकर (प्र) हर्षित हुए उपासक लोग कहते हैं कि (देवयानाः पन्था) यह देवताओं का मार्ग (मे) मुझे प्राप्त हो ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में परमात्मा की स्तुति वर्णन की गई है कि जब उपासक प्रथम परमात्मज्योति को देख कर ध्यानावस्थित हुआ उस परमात्मदेव का ध्यान करता और ध्यानावस्था में उस ज्योति को सम्पूर्ण चन्द्रमादि वसुओं से अलङ्कृत सबसे शिरोमणि पाता है, तब मुक्तकण्ठ से यह कहता है कि देवताओं का यह मार्ग मुझको प्राप्त हो, या यों कहो कि परमात्मरूप दिव्यज्योति, जो सब वसुओं में देदीप्यमान हो रही है, उसका ध्यान करनेवाले उपासक देवमार्ग द्वारा अमृतभाव को प्राप्त होते हैं। इसी भाव को “प्राची दिगग्निरधिपति०” इत्यादि सन्ध्या-मन्त्रों में वर्णन किया है कि प्राची आदि दिशा तथा उपदिशाओं का अधिपति एक परमात्मदेव ही है, जो हमारा रक्षक, शुभकर्मों में प्रेरक और सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य का दाता है, उसी की उपासना करनी योग्य है, अन्य की नहीं ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

नव दम्पति का कर्त्तव्य

पदार्थान्वयभाषाः - पदार्थ- जैसे उषा के प्रकट होने पर (वसुभिः इष्कृतासः पन्थाः देवयानाः प्र अदृश्रन्) = मनुष्य निर्मित और मनुष्यों से चलने योग्य मार्ग दिखाई देते हैं। वह (उषसः केतुः अभूत्) तेजस्वी सूर्य का ज्ञापक होती और (अधि हर्म्येभ्यः पुरस्तात् प्रतीची आ अगातू) = बड़े-बड़े महलों के ऊपर से पूर्व से पश्चिम की ओर आती है, वैसे ही वर के लिये वधू और वधू के लिये वर दोनों ही उत्सुक, एवं कामनायुक्त होने से दोनों ही 'उषा' हैं, अत: ऐसे (उषस:) = कामना से उत्सुक पुरुष के (पुरस्तात्) = आगे (केतुः) = ध्वजा- समान गुणों की दर्शक विदुषी वधू (अभूत् उ) = होवे। वह (प्रतीची) = प्रत्यक्ष में आदृत होती हुई, (हर्म्येभ्यः अधि आगात्) = महलों में रहने के लिये अधिष्ठात्री रानी होकर आवे। इसी प्रकार (उषसः) = कान्तिमती, कामनावती प्रिय वधू का (केतुः) = ध्वजा के समान ज्ञानवान् पुरुष हो, वह भी पूर्व से पश्चिम को आनेवाले सूर्य के समान (हर्म्येभ्यः अधि आगात्) = महलों को आये। (वसुभिः) = विद्वानों द्वारा (इष्कृतासः) = सुशोभित और (देवयाना:) = विद्वानों द्वारा चलने योग्य मे (पन्थाः) = मेरे धर्ममार्ग, किरणों से प्रकाशित मार्गों के समान मेरे लिये (अमर्धन्तः) = पीड़ादायक न होते हुए (मे) = मुझे (प्र अदृश्रन्) = उत्तम रीति से दृष्टिगोचर हों।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - नव दम्पति वर और वधू परस्पर प्रीतियुक्त तेजस्वी कान्तिमान होकर एक दूसरे को मार्गदर्शन करें। अपने उत्तम घरों में विद्वानों के ज्ञानोपदेश द्वारा धर्ममार्ग को जानकर उस पर आचरण करें तथा जीवन को प्रकाशित करें।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अमर्धन्तः) सर्वजनेभ्योऽभयदाता (वसुभिः इष्कृतासः) सूर्यचन्द्रादिवसुभिरलङ्कृतः (उषसः) सम्पूर्णज्योतिषां (केतुः) शिरोमणिः परमात्मा (हर्म्येभ्यः) कमनीयज्योतिषां (पुरस्तात्) प्रथमः (प्रतीची) पूर्वां दिशं (आ) सम्यक् (अधि अगात्) आश्रित्य (अभूत्) आविर्भवति तम् (अदृश्रन्) अवलोक्य (प्र) सञ्जातहर्षा उपासका (देवयानाः पन्थाः) इमं देवमार्गं (मे) वयं प्राप्नुयाम, इति वदन्ति ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The paths of divinity are clearly visible for me, blissful, unobstructed and unobstructing, showing the order of stars and planets. The morning light of dawn, symbol of divinity, is risen in the east and spreads westward dispelling darkness over high altitudes.