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आ वि॑श्ववाराश्विना गतं न॒: प्र तत्स्थान॑मवाचि वां पृथि॒व्याम् । अश्वो॒ न वा॒जी शु॒नपृ॑ष्ठो अस्था॒दा यत्से॒दथु॑र्ध्रु॒वसे॒ न योनि॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā viśvavārāśvinā gataṁ naḥ pra tat sthānam avāci vām pṛthivyām | aśvo na vājī śunapṛṣṭho asthād ā yat sedathur dhruvase na yonim ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ । वि॒श्व॒ऽवा॒रा॒ । अ॒श्वि॒ना॒ । ग॒त॒म् । नः॒ । प्र । तत् । स्थान॑म् । अ॒वा॒चि॒ । वा॒म् । पृ॒थि॒व्याम् । अश्वः॑ । न । वा॒जी । शु॒नऽपृ॑ष्ठः । अ॒स्था॒त् । आ । यत् । से॒दथुः॑ । ध्रु॒वसे॑ । न । योनि॑म् ॥ ७.७०.१

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:70» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:17» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

अब ज्ञानी तथा विज्ञानियों द्वारा यज्ञों का सुशोभित होना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्ववारा, अश्विना) हे वरणीय विद्वज्जनों ! (आगतं) आप आकर (नः) हमारे यज्ञ को (आ) भले प्रकार सुशोभित करें (वां) तुम्हारे लिए (तत्) उस (पृथिव्यां) पृथिवी में (शुनपृष्ठः) सुखपूर्वक बैठने के लिए (स्थानं) स्थान=वेदि (अवाची) बनाई गई है, (यत्) जो (योनिं, न) केवल बैठने को ही नहीं, किन्तु (ध्रुवसे, सेदथुः) दृढ़ता में स्थिर करनेवाली है। आप लोग (प्र) हर्षपूर्वक (वाजी, अश्वः, न) बलवान् अश्व के समान (अस्थात्) शीघ्रता से आयें ॥१॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा उपदेश करते हैं कि याज्ञिक लोगो ! तुम अपने यज्ञों में ज्ञानी और विज्ञानी दोनों प्रकार के विद्वानों को सत्कारपूर्वक बुलाकर यज्ञवेदि पर बिठाओ और उनसे नाना प्रकार के सदुपदेश ग्रहण करो, क्योंकि यह वेदि केवल बैठने के लिए ही नहीं, किन्तु यज्ञकर्मों की दृढ़ता में स्थिर करानेवाली है ॥ तात्पर्य्य यह है कि जिन यज्ञों में ज्ञानी और विज्ञानी दोनों प्रकार के विद्वानों को निमन्त्रित कर सत्कार किया जाता है, वे यज्ञ सुशोभित और कृतकार्य्य होते हैं। आध्यात्मिक विद्या के जाननेवाले “ज्ञानी” और कला-कौशल की विद्या को जाननेवाले “विज्ञानी” कहाते हैं, अथवा पदार्थों के ज्ञाता को “ज्ञानी” और अनुष्ठाता को “विज्ञानी” कहते हैं। वह विद्वान्, पुरुषार्थी तथा अश्व के समान शीघ्रगामी केवल तुम्हारे स्थानों को ही सुशोभित करनेवाले न हों, किन्तु दृढ़तारूप व्रत में स्थिर करें। उक्त दोनों प्रकार के विज्ञानों से ही यज्ञ सफल होता है, अन्यथा नहीं ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

गृहस्थाश्रम की श्रेष्ठता

पदार्थान्वयभाषाः - पदार्थ- हे (विश्ववारा अश्विना) = सबसे वरणीय उत्तम स्त्री-पुरुषो! आप दोनों (नः) = हमारे (आगतम्) = पास आओ। (वां) = आप दोनों का (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (तत् स्थानम्) = गृहस्थाश्रम (प्र अवाचि) = उत्तम कहा है, (यत्) = जिसमें (वाजी) = बलवान् पुरुष (शुन-पृष्ठ:) = सुखद पीठवाले अश्व के समान सुखों का आश्रय होकर (अस्थात् =) रहता है। आप पति-पत्नी (ध्रुवसे) = स्थिरता के लिये (योनिम् सेदथुः) = एक गृह में विराजते हो।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-गृहस्थाश्रम पृथिवी पर तभी उत्तम है जब गृहस्थ स्त्री-पुरुष स्वस्थ, संयमी तथा बलवान् होवें तथा परस्पर प्रीतिपूर्वक रहें।
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आर्यमुनि

अथ ज्ञानभिर्विज्ञानिभिश्च यज्ञाः सम्भावनीया इत्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्ववारा, अश्विना) हे वर्य्या विद्वज्जनाः, यूयं (आगतम्) आगत्य (नः) अस्माकं यज्ञं (आ) सम्यक् सम्भावयत (वाम्) युष्मभ्यं (तत्) तत्र (पृथिव्याम्) धरातले (शुनपृष्ठः) सुखेनासितुं (स्थानम्) वेदिरूपं स्थलं (अवाची) निर्वाचितमस्ति (यत्) स्थानं (न, योनिम्) न केवलमासनं किन्तु (ध्रुवसे, सेदथुः) दृढतायै स्थैर्यदायकमपि वर्त्तते, भवन्तः (प्र) हर्षेण (वाजी, अश्वः, न) वल्गन्तोऽश्वा इव शीघ्रतया (अस्थात्) आगच्छत ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Ashvins, world heroes of universal choice, come to our yajna. The seat on the earth vedi is fixed, reserved and proclaimed for you and stays like a war horse at rest after victory. That you would occupy without disturbance as in your own home and there be firm as the pole star.