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प्र स॒म्राजो॒ असु॑रस्य॒ प्रश॑स्तिं पुं॒सः कृ॑ष्टी॒नाम॑नु॒माद्य॑स्य। इन्द्र॑स्येव॒ प्र त॒वस॑स्कृ॒तानि॒ वन्दे॑ दा॒रुं वन्द॑मानो विवक्मि ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra samrājo asurasya praśastim puṁsaḥ kṛṣṭīnām anumādyasya | indrasyeva pra tavasas kṛtāni vande dāruṁ vandamāno vivakmi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। स॒म्ऽराजः॑। असु॑रस्य। प्रऽश॑स्तिम्। पुं॒सः। कृ॒ष्टी॒नाम्। अ॒नु॒ऽमाद्य॑स्य। इन्द्र॑स्यऽइव। प्र। त॒वसः॑। कृ॒तानि॑। वन्दे॑। दा॒रुम्। वन्द॑मानः। वि॒व॒क्मि॒ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:6» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:9» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सात ऋचावाले छठे सूक्त का आरम्भ है। इसके पहिले मन्त्र में कौन राजा श्रेष्ठ हो, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (दारुम्) दुःख के दूर करनेवाले ईश्वर की (वन्दमानः) स्तुति करता हुआ मैं (कृष्टीनाम्) मनुष्यों के बीच (असुरस्य) मेघ के तुल्य वर्त्तमान (इन्द्रस्य) सूर्य के समान (अनुमाद्यस्य) अनुकूल हर्ष करने योग्य (सम्राजः) चक्रवर्ती (पुंसः) पुरुष की (प्रशस्तिम्) प्रशंसा (प्र, विवक्मि) विशेष कहता हूँ (तवसः) बल से (कृतानि) किये हुओं को (प्र, वन्दे) नमस्कार करता हूँ, वैसे इस की प्रशंसा कर के इस की सदा वन्दना करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो शुभ गुण, कर्म और स्वभावों से युक्त वन्दनीय और प्रशंसा के योग्य हो, उस चक्रवर्ती राजा की शुभकर्मों से हुई प्रशंसा करो ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ को राजा वरः स्यादित्याह।

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथा दारुं वन्दमानोऽहं कृष्टीनां मध्येऽसुरस्येवेन्द्रस्येवानुमाद्यस्य सम्राजः पुंसः प्रशस्तिं प्र विवक्मि तवसः कृतानि प्र वन्दे तथैतस्य प्रशंसां कृत्वैतं सदा वन्दध्वम् ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (सम्राजः) चक्रवर्तिनः (असुरस्य) मेघस्येव वर्त्तमानस्य (प्रशस्तिम्) प्रशंसाम् (पुंसः) पुरुषस्य (कृष्टीनाम्) मनुष्याणाम् (अनुमाद्यस्य) अनुहर्षितुं योग्यस्य (इन्द्रस्येव) सूर्यस्येव (प्र) (तवसः) बलात् (कृतानि) (वन्दे) नमस्करोमि (दारुम्) दुःखविदारकम् (वन्दमानः) स्तुवन् सन् (विवक्मि) विशेषेण वदामि ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यः शुभगुणकर्मस्वभावैर्युक्तो वन्दनीयः प्रशंसनीयः स्यात् तस्य चक्रवर्तिनः शुभकर्मजनितां प्रशंसां कुरुत ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात वैश्वानराच्या दृष्टांताने राजाच्या कर्माचे वर्णन असल्यामुळे यापूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे माणसांनो! जो शुभ गुण-कर्म-स्वभावयुक्त, वंदनीय व प्रशंसायोग्य असतो, त्या चक्रवर्ती राजाची शुभ कर्मांमुळे प्रशंसा करा. ॥ १ ॥