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देवता: मरुतः ऋषि: वसिष्ठः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

ऋध॒क्सा वो॑ मरुतो दि॒द्युद॑स्तु॒ यद्व॒ आगः॑ पुरु॒षता॒ करा॑म। मा व॒स्तस्या॒मपि॑ भूमा यजत्रा अ॒स्मे वो॑ अस्तु सुम॒तिश्चनि॑ष्ठा ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ṛdhak sā vo maruto didyud astu yad va āgaḥ puruṣatā karāma | mā vas tasyām api bhūmā yajatrā asme vo astu sumatiś caniṣṭhā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋध॑क्। सा। वः॒। म॒रु॒तः॒। दि॒द्युत्। अ॒स्तु॒। यत्। वः॒। आगः॑। पु॒रु॒षता॑। करा॑म। मा। वः॒। तस्या॑म्। अपि॑। भू॒म॒। य॒ज॒त्राः॒। अ॒स्मे इति॑। वः॒। अ॒स्तु॒। सु॒ऽम॒तिः। चनि॑ष्ठा ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:57» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:27» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को कैसा वर्ताव करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (यजत्राः) मेल करनेवाले (मरुतः) मनुष्यो ! (यत्) जिससे (वः) आप लोगों के (आगः) अपराध को और जिस (पुरुषता) पुरुषपने से (कराम) करें (तस्याम्) उसमें (अपि) भी (नः) आप लोगों के अपराध को (मा) नहीं करें और जिससे हम लोग पुरुषार्थी (भूम) होवें (सा) वह (वः) आप लोगों के (ऋधक्) सत्य में (चनिष्ठा) अतिशय अन्न आदि ऐश्वर्य्य से युक्त (सुमतिः) अच्छी बुद्धि (अस्मे) हम लोगों में (अस्तु) हो और वह (दिद्युत्) प्रकाशमान नीति (नः) आप लोगों की (अस्तु) हो ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! अन्याय से अपराध का परित्याग कर और सत्य बुद्धि को ग्रहण कर वे पुरुषार्थ से सुखी होओ ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

नीतिवान राजा

पदार्थान्वयभाषाः - पदार्थ- हे (मरुतः) = विद्वान् पुरुषो! (वः) = आप की (सा विद्युत्) = वह उज्ज्वल नीति (ऋधक् अस्तु) = सच्ची हो (यत्) = यदि चाहें हम (वः) = आप लोगों के प्रति (पुरुषता) = पुरुष होने से (आगः कराम) = अपराध भी करें। हे (यजत्राः) = पूज्य जनो! (तस्याम्) = उस नीति में रहकर (वः मा अपि भूम) = आप लोगों के प्रति हम अपराधी न हों। (वः चनिष्ठा) = आप की ऐश्वर्यादि-युक्त (सुमतिः अस्मे अस्तु) = शुभ मति हमारे लिये हो ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- विद्वान् वीर राजा अपने राष्ट्र की उन्नति के लिए उत्तम नीति का निर्माण कर लागू करे। वह नीति सच्ची हो, नाममात्र की न हो। वह नीति प्रजा जनों को उत्तम अन्न तथा ऐश्वर्य प्रदान करनेवाली हो । प्रजाजन भी उस नीति का निष्टा से पालन करें।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कथं वर्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे यजत्रा मरुतः ! यद्यया व आगो यद्यया पुरुषता कराम तस्यामपि च आगो मा कराम यया वयं पुरुषार्थिनो भूम सा व ऋधक्चनिष्ठा सुमतिरस्मे अस्तु सा विद्युद्वो युष्माकमस्तु ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋधक्) सत्ये (सा) (वः) युष्माकम् (मरुतः) मनुष्याः (दिद्युत्) देदीप्यमाना नीतिः (अस्तु) (यत्) यथा (वः) युष्माकम् (आगः) अपराधम् (पुरुषता) पुरुषाणां भावेन पुरुषार्थतया (कराम) कुर्याम (मा) (वः) युष्मान् (तस्याम्) (अपि) (भूम) भवेम। अत्र द्व्यचो० इति दीर्घः। (यजत्राः) सङ्गन्तारः (अस्मे) अस्मासु (वः) युष्माकम् (अस्तु) (सुमतिः) शोभना प्रज्ञा (चनिष्ठा) अतिशयेनान्नाद्यैश्वर्ययुक्ता ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! अन्यायापराधं विहाय सत्यां प्रज्ञां गृहीत्वा पुरुषार्थेन सह सुखिनो भवत ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Maruts, best of the human world powers, may that beauty and brilliance of your policy and performance be ever distinguished and true. Even though out of our human frailty we may transgress your law or commit sin, O venerable heroes of the yajnic social order, let us not fall out of favour with you. Let that goodwill of yours still stay constant for us with love and grace.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! अन्याय, अपराध सोडून द्या व सत्य बुद्धी ग्रहण करून पुरुषार्थाने सुखी व्हा ॥ ४ ॥