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देवता: मरुतः ऋषि: वसिष्ठः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

द॒श॒स्यन्तो॑ नो म॒रुतो॑ मृळन्तु वरिव॒स्यन्तो॒ रोद॑सी सु॒मेके॑। आ॒रे गो॒हा नृ॒हा व॒धो वो॑ अस्तु सु॒म्नेभि॑र॒स्मे व॑सवो नमध्वम् ॥१७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

daśasyanto no maruto mṛḻantu varivasyanto rodasī sumeke | āre gohā nṛhā vadho vo astu sumnebhir asme vasavo namadhvam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

द॒श॒स्यन्तः॑। नः॒। म॒रुतः॑। मृ॒ळ॒न्तु॒। व॒रि॒व॒स्यन्तः॑। रोद॑सी॒ इति॑। सु॒मेके॒ इति॑ सु॒ऽमेके॑। आ॒रे। गो॒ऽहा। नृ॒ऽहा। व॒धः। वः॒। अ॒स्तु॒। सु॒म्नेभिः॑। अ॒स्मे इति॑। व॒स॒वः॒। न॒म॒ध्व॒म् ॥१७॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:56» मन्त्र:17 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:25» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:17


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कौन राजजन श्रेष्ठ हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे वीरो (मरुतः) प्राणों के समान ! (दशस्यन्तः) बल करते और (सुमेके) एक से रूपवाले (रोदसी) आकाश और पृथिवी को (वरिवस्यन्तः) सेवते हुए जन (नः) हम लोगों को (मृळन्तु) सुख देवें और (वः) तुम्हारे (आरे) दूर देश में (गोहा) गो हत्यारा (नृहा) और मनुष्य हत्यारा (वधः) वह दोनों जिससे मारते हैं वह (अस्तु) दूर हो जाये (वसवः) निवास दिखानेवाले तुम लोग (सुम्नेभिः) सुखों के साथ (अस्मे) हम लोगों को (नमध्वम्) नमो ॥१७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वे ही राजजन उत्तम हैं, जो श्रेष्ठों को सुख देकर दुष्टों को मारते हैं और आप्त जनों को नम के दुष्टों में उग्र होते हैं ॥१७॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

मातृ-पितृ भक्त

पदार्थान्वयभाषाः - पदार्थ - (मरुतः) = वीर पुरुष (दशस्यन्तः) = दान देते और (सुमेके) = पूज्य (रोदसी) = माता-पिताओं की (वरिवस्यन्तः) = सेवा करते हुए (नः मृडन्तु) = हमें सुखी करें। (गोहा) = गौ आदि का मारनेवाला और (नृहा) = मनुष्यों को मारनेवाला (वः) = आप से आरे-दूर हो और वह (वधः अस्तु वध) = योग्य हो। (सुम्नेभिः अस्मे वसवो नमध्वम्) = श्रेष्ठ पुरुष शुभ वचनों से प्रभु की स्तुति करें।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- श्रेष्ठ पुरुष ईश्वर की स्तुति करते हुए अपने पूज्य माता-पिता की सेवा-शुश्रुषा करके सुखी हों। ऐसे पुरुष प्रशंसा के योग्य हैं। गौ आदि पशुओं को मारनेवाले गौघातक दण्ड या वध के योग्य हैं।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः के राजजनाः श्रेष्ठाः सन्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे वीरा मरुत इव ! दशस्यन्तस्सुमेके रोदसी वरिवस्यन्तो नो मृळन्तु वो युष्माकमारे गोहा नृहा वधोऽस्तु वसवो यूयं सुम्नेभिरस्मे नमध्वम् ॥१७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (दशस्यन्तः) बलयन्तः (नः) अस्मान् (मरुतः) प्राणा इव (मृळन्तु) सुखयन्तु (वरिवस्यन्तः) परिचरन्तः (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (सुमेके) सुस्वरूपे (आरे) दूरे (गोहा) यो गां हन्ति (नृहा) यो नॄन् हन्ति (वधः) हन्ति येन सः (वः) युष्माकम् (अस्तु) (सुम्नेभिः) सुखैः (अस्मे) अस्मान् (वसवः) वासयितारः (नमध्वम्) ॥१७॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। त एव राजजना उत्तमास्सन्ति ये श्रेष्ठान् सुखयित्वा दुष्टान् घ्नन्त्याप्तान्नत्वा दुष्टेषूग्रा भवन्तीति ॥१७॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - May the Maruts, leaders and pioneers serving and replenishing the beautiful heaven and earth, be kind and gracious and bring us peace and joy. May the butcher and the murderer be far from us. May the weapon of death be far from you and from us. O givers of peace and settlement in joy and prosperity turn to us with happiness and well-being.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे श्रेष्ठांना सुख देऊन दुष्टांचे हनन करतात ते विद्वानांना नमन करतात व दुष्टांना उग्र असतात. ॥ १७ ॥