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वास्तो॑ष्पते प्र॒तर॑णो न एधि गय॒स्फानो॒ गोभि॒रश्वे॑भिरिन्दो। अ॒जरा॑सस्ते स॒ख्ये स्या॑म पि॒तेव॑ पु॒त्रान्प्रति॑ नो जुषस्व ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vāstoṣ pate prataraṇo na edhi gayasphāno gobhir aśvebhir indo | ajarāsas te sakhye syāma piteva putrān prati no juṣasva ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वास्तोः॑। प॒ते॒। प्र॒ऽतर॑णः। नः॒। ए॒धि॒। ग॒य॒ऽस्फानः॑। गोभिः॑। अश्वे॑भिः। इ॒न्दो॒ इति॑। अ॒जरा॑सः। ते॒। स॒ख्ये। स्या॒म॒। पि॒ताऽइ॑व। पु॒त्रान्। प्रति॑। नः॒। जु॒ष॒स्व॒ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:54» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:21» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर गृहस्थ क्या करके किनको किसके समान रक्खे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्दो) आनन्द के देनेवाले (वास्तोष्पते) घर के रक्षक ! आप (गोभिः) गौ आदि से (अश्वेभिः) घोड़े आदि से (गयस्फानः) घर की वृद्धि करने (प्रतरणः) उत्तमता से दुःख से तारने और (नः) हमारे सुख करनेवाले (एधि) हूजिये जिन (ते) आप के (सख्ये) मित्रपन में हम लोग (अजरासः) शरीर जीर्ण करनेवाली वृद्धावस्था से रहित (स्याम) हों सो आप (नः) हम लोगों को (पुत्रान्) पुत्रों को जैसे (पितेव) पिता वैसे (प्रति, जुषस्व) प्रतीति से सेवो ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । मनुष्य उत्तम घर बना कर गो आदि पशुओं से शोभित कर शुद्ध कर प्रजा के बढ़ानेवाले होकर अक्षय मित्रपन सब में अच्छे प्रकार प्रसिद्ध कराय जैसे पिता पुत्रों की रक्षा करता है, वैसे ही सब की रक्षा करें ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

गयस्फानो

पदार्थान्वयभाषाः - पदार्थ- हे (वास्तोः पते) = निवास योग्य गृह, राष्ट्र के पालक गृहपते! राजन्! तू (नः) = हमारा (प्र-तरण:) = नाव के तुल्य संकट से पार उतारनेवाला और (गय-स्फान:) = गृह, प्राण और धन का बढ़ानेवाला (एधि) = हो । हे (इन्दो) = ऐश्वर्यवन्! तू (नः) = हमें (गोभिः अश्वेभिः) = गौओं, अश्वों सहित प्राप्त हो । (ते सख्ये) = तेरे मित्र- भाव में हम (अजरासः) = वृद्धावस्था - रहित, बल-युक्त रहें। (नः) = हम से तू (पिता इव पुत्रान्) = पुत्रों को पिता के तुल्य (जुषस्व) = प्रेम कर ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-गृहपति वा राजा को अपने आश्रित जनों वा प्रजा का कष्ट स्नेह पूर्वक दूर करना चाहिये।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्गृहस्थः किं कृत्वा कान् के इव रक्षेदित्याह ॥

अन्वय:

हे इन्दो वास्तोष्पते ! त्वं गोभिरश्वेभिर्गयस्फानः प्रतरणो नोऽस्माकं सुखकार्येधि यस्य ते सख्ये अजरासः वयं स्याम स त्वं नोऽस्मान् पुत्रान् पितेव प्रति जुषस्व ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वास्तोः) गृहस्य (पते) पालक (प्रतरणः) प्रकर्षेण दुःखात्तारकः (नः) अस्माकम् (एधि) भव (गयस्फानः) गृहस्य वर्धकः (गोभिः) गवादिभिः (अश्वेभिः) तुरङ्गादिभिः (इन्दो) आनन्दप्रद (अजरासः) जरारोगरहिताः (ते) तव (सख्ये) मित्रत्वे (स्याम) (पितेव) (पुत्रान्) (प्रति) (नः) अस्मान् (जुषस्व) ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । मनुष्या उत्तमं गृहं निर्माय गवादिभिः पशुभिरलंकृत्य शोधयित्वा प्रजाया वर्धका भूत्वाऽक्षयं मित्रत्वं सर्वेषु संभाव्य यथा पिता पुत्रान् रक्षति तथैव सर्वान् रक्षन्तु ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O master and guardian of the home, giver of peace and bliss, be our saviour and protector all round, promote the homestead and the inmates along with the cows and horses. In love and friendship with you, let us be free from disease and ravages of age. Pray love and protect us and promote us as father for the children.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी उत्तम घरे बांधून गाई इत्यादी पशूंनी शोभित करून, शुद्ध करून प्रजा वाढवावी. सर्वांशी चांगली मैत्री करून प्रसिद्ध होऊन पिता जसे पुत्रांचे संरक्षण करतो तसे सर्वांचे संरक्षण करावे. ॥ २ ॥