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वास्तो॑ष्पते॒ प्रति॑ जानीह्य॒स्मान्त्स्वा॑वे॒शो अ॑नमी॒वो भ॑वा नः। यत्त्वेम॑हे॒ प्रति॒ तन्नो॑ जुषस्व॒ शं नो॑ भव द्वि॒पदे॒ शं चतु॑ष्पदे ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vāstoṣ pate prati jānīhy asmān svāveśo anamīvo bhavā naḥ | yat tvemahe prati tan no juṣasva śaṁ no bhava dvipade śaṁ catuṣpade ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वास्तोः॑। प॒ते॒। प्रति॑। जा॒नी॒हि॒। अ॒स्मान्। सु॒ऽआ॒वे॒शः। अ॒न॒मी॒वः। भ॒व॒। नः॒। यत्। त्वा॒। ईम॑हे। प्रति॑। तत्। नः॒। जु॒ष॒स्व॒। शम्। नः॒। भ॒व॒। द्वि॒ऽपदे॑। शम्। चतुः॑ऽपदे ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:54» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:21» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब तीन ऋचावाले चौवनवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्य घर बना कर उस में क्या करते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वास्तोः) निवास करानेवाले घर के (पते) स्वामी गृहस्थ जन ! आप (अस्मान्) हम लोगों के (प्रति, जानीहि) प्रतिज्ञा से जानो आप (नः) हमारे घर में (स्वावेशः) सुख में हैं सब ओर से प्रवेश जिनको ऐसे और (अनमीवः) नीरोग (भव) हूजिये (यत्) जहाँ हम लोग (त्वा) आपको (ईमहे) प्राप्त हों (तत्) उसको (नः) हमारे (प्रति, जुषस्व) प्रति सेवो आप (नः) हम लोगों के (द्विपदे) मनुष्य आदि जीव (शम्) सुख करनेवाले और (चतुष्पदे) गौ आदि पशु के लिये (शम्) सुख करनेवाले (भव) हूजिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य सब ओर द्वार और बहुत अवकाशवाले घर को बना कर उस में वसते और रोगरहित होकर अपने तथा औरों के लिये सुख देते हैं, वे सबको मङ्गल देनेवाले होते हैं ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

उत्तम गृहपति

पदार्थान्वयभाषाः - पदार्थ- हे (वास्तोः पते) = वास करने योग्य राष्ट्र के पालक ! राजन्! तू (अस्मान् प्रति जानीहि) = हमें प्रत्येक को जान वा हमसे प्रतिज्ञापूर्वक व्यवहार कर। (नः) = हमारे प्रति (सु आवेशः स्व आवेशः) = उत्तम भावों और बर्त्ताओंवाला और (अनमीवः) = रोगादि से पीड़ा न होने देनेवाला (भव) = हो। (यत् त्वा ईमहे) = जो हम तेरे समीप याचना करते हैं (नः तत्) = प्रति (जुषस्व) = वह तू हमें मान दे। (नः द्विपदे शम्, चतुष्पदे शम्) = हमारे दोपाये पुत्रादि और चौपाये गाय आदि का भी कल्याण हो ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- उत्तम घर का स्वामी गृहपति सबके साथ उत्तम भावों तथा प्रेमपूर्वक व्यवहार करे इससे उस घर का प्रत्येक प्राणी सुख पूर्वक रहेगा।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्या गृहं निर्माय तत्र किं कुर्वन्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे वास्तोष्पते गृहस्थ ! त्वमस्मान् प्रति जानीहि त्वमत्र नो गृहे स्वावेशोऽनमीवो भव यद्यत्र वयं त्वेमहे तन्नः प्रति जुषस्व त्वन्नो द्विपदे शं चतुष्पदे शं भव ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वास्तोः) वासहेतोर्गृहस्य (पते) स्वामिन् (प्रति) (जानीहि) (अस्मान्) (स्वावेशः) स्वः आवेशो यस्य सः (अनमीवः) रोगरहितः (भव) अत्र द्व्यचो० इति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (यत्) यत्र (त्वा) त्वाम् (ईमहे) प्राप्नुयाम (प्रति) (तत्) सह (नः) अस्मान् (जुषस्व) सेवस्व (शम्) सुखकारी (नः) अस्माकम् (भव) (द्विपदे) मनुष्याद्याय (शम्) (चतुष्पदे) गवाद्याय ॥१॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्यास्सर्वतोद्वारं पुष्कलावकाशं गृहं निर्माय तत्र वसन्ति रोगरहिता भूत्वा स्वेभ्यश्चान्येभ्यश्च सुखं प्रयच्छन्ति ते सर्वेषां मङ्गलप्रदा भवन्ति ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Vastupati, master architect and guardian of the home, know us for certain and approve what we want, be for us the provider of a happy and comfortable home free from pollution and disease. Be pleased to give us the facilities we ask you to provide, and let there be peace and well being for humans and for animals.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात गृहस्थाचे गुण-कर्म यांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जी माणसे सगळीकडे दारे असलेली प्रशस्त घरे निर्माण करून तेथे निवास करतात ती रोगरहित बनून आपल्याला व इतरांना सुख देतात व ती सर्वांचे मंगल करणारी असतात. ॥ १ ॥