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प्र द्यावा॑ य॒ज्ञैः पृ॑थि॒वी नमो॑भिः स॒बाध॑ ईळे बृह॒ती यज॑त्रे। ते चि॒द्धि पूर्वे॑ क॒वयो॑ गृ॒णन्तः॑ पु॒रो म॒ही द॑धि॒रे दे॒वपु॑त्रे ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra dyāvā yajñaiḥ pṛthivī namobhiḥ sabādha īḻe bṛhatī yajatre | te cid dhi pūrve kavayo gṛṇantaḥ puro mahī dadhire devaputre ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। द्यावा॑। य॒ज्ञैः। पृ॒थि॒वी इति॑। नमः॑ऽभिः। स॒ऽबाधः॑। ई॒ळे॒। बृ॒ह॒ती इति॑। यज॑त्रे॒ इति॑। ते इति॑। चि॒त्। हि। पूर्वे॑। क॒वयः॑। गृ॒णन्तः॑। पु॒रः। म॒ही इति॑। द॒धि॒रे। दे॒वपु॑त्रे॒ इति॑ दे॒वऽपु॑त्रे ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:53» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:20» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब तीन ऋचावाले त्रेपनवें सूक्त का प्रारम्भ है, इसके प्रथम मन्त्र में अब विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (सबाधः) पीड़ा के सहित वर्त्तमान मैं (नमोभिः) अन्नादिकों से और (यज्ञैः) सङ्गति करने-करानेवालों से जो (मही) बड़े (बृहती) बड़े (यजत्रे) सङ्ग करने योग्य (पुरः) नगरों को धारण करनेवाली (देवपुत्रे) देवपुत्र अर्थात् विद्वान् जन जिनकी पुत्र के समान पालना करतेवाले हैं, उन (द्यावापृथिवी) सूर्य और भूमि की (पूर्वे) अगले (कवयः) विद्वान् जन (गृणन्तः) स्तुति करते हुए (दधिरे) धारण करते हैं (ते, चित्) (हि) उन्हीं की (प्र, ईळे) अच्छे प्रकार गुणों से प्रशंसा करता हूँ ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे सबको धारण करनेवाले भूमि और सूर्य को विद्वान् जन जान कर उपकार करते हैं, वैसे तुम भी करो ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

द्यावापृथिवी

पदार्थान्वयभाषाः - पदार्थ - (द्यावा-पृथिवी) = भूमि और सूर्य के तुल्य (बृहती) = बड़ी, (यजत्रे) = सत्संग योग्य (देव-पुत्रे) = विद्वान् पुत्रों के माता-पिताओं को मैं (यज्ञैः) = दान, मान से (नमोभिः) = नमस्कारों से (सबाध:) = जब-जब पीड़ायुक्त होऊँ (ईडे) = उनकी पूजा करूँ। (त्ये चित् मही) = उन दोनों पूज्यों को (पूर्वे) = पूर्व के (गृणन्तः) = उपदेष्टा (कवयः) = विद्वान् पुरुष (पुरः दधिरे) = सदा अपने सन्मुख, पूज्य पद पर स्थापित करते रहे हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- मनुष्य लोग आकाश के समान विशाल हृदयवाले पिता तथा पृथिवी के समान धैर्यशाली माता का सदा सम्मान करें। उनके द्वारा प्रदत्त उत्तम शिक्षाओं को ग्रहण कर दान, मान, सत्कार आदि के द्वारा विद्वानों की भी पूजा करें। माता, पिता व विद्वानों के सत्संग से प्रेरित जन इन सबको पूज्य पद पर स्थापित करते हैं तथा इन्हें कभी भी पीड़ा नहीं पहुँचाते।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वांसः किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथा सबाधोऽहं नमोभिर्यज्ञैः ये मही बृहती यजत्रे पुरो धरन्त्यौ देवपुत्रे द्यावापृथिवी पूर्वे कवयो गृणन्तो दधिरे ते चिद्धि प्रेळे ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (द्यावा) (यज्ञैः) सङ्गतिकरणैः कर्मभिः (पृथिवी) सूर्यभूमी (नमोभिः) अन्नादिभिः (सबाधः) बाधेन सह वर्त्तमानः (ईळे) गुणैः प्रशंसामि (बृहती) महत्यौ (यजत्रे) सङ्गन्तव्ये (ते) (चित्) अपि (हि) (पूर्वे) (कवयः) विद्वांसः (गृणन्तः) स्तुवन्तः (पुरः) पुराणि (मही) महत्यौ (दधिरे) धरन्ति (देवपुत्रे) देवा विद्वांसः पुत्राः पुत्रवत्पालकाः ययोस्ते ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा सर्वधारकौ भूमिसूर्यौ विद्वांसो विज्ञायोपकुर्वन्ति तथा यूयमपि कुरुत ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Challenged by difficulties on the way forward, I invoke high heaven and mother earth with offers of homage and adoration. Vast and abundant they are, close friends and generous givers, divine sources of hope and energy, whom noble men serve and exalt with songs. To these, for sure, celebrant poets and visionaries of all time look up and these they adore for inspiration with offers of homage and adoration.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात द्यावापृथ्वीच्या गुण व कृत्य यांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे सर्वांना धारण करणाऱ्या भूमी व सूर्याला विद्वान लोक जाणतात व उपकार करतात तसे तुम्हीही करा. ॥ १ ॥