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यद्वि॒जाम॒न्परु॑षि॒ वन्द॑नं॒ भुव॑दष्ठी॒वन्तौ॒ परि॑ कु॒ल्फौ च॒ देह॑त्। अ॒ग्निष्टच्छोच॒न्नप॑ बाधतामि॒तो मा मां पद्ये॑न॒ रप॑सा विद॒त्त्सरुः॑ ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad vijāman paruṣi vandanam bhuvad aṣṭhīvantau pari kulphau ca dehat | agniṣ ṭac chocann apa bādhatām ito mā mām padyena rapasā vidat tsaruḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। वि॒ऽजाम॑न्। परु॑षि। वन्द॑नम्। भुव॑त्। अ॒ष्ठी॒वन्तौ॑। परि॑। कु॒ल्फौ। च॒। देह॑त्। अ॒ग्निः। तत्। शोच॑न्। अप॑। बा॒ध॒ता॒म्। इ॒तः। मा। माम्। पद्ये॑न। रप॑सा। वि॒द॒त्। त्सरुः॑ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:50» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:17» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को रोगनिवारणार्थ क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो इस (परुषि) कठोर व्यवहार में (वन्दनम्) वन्दना को (विजामन्) विशेषता से जानता हुआ (भुवत्) प्रसिद्ध होता है (यत्) जिस व्यवहार में (त्सरुः) कठिन रोग (अष्ठीवन्तौ) कफादि न थूकनेवाली (कुल्फौ) जङ्घाओं को (च) भी (परि, देहत्) सब ओर से बढ़ावे पीड़ा दे (तत्) उसको (अग्निः) अग्नि (शोचन्) पवित्र करता हुआ अग्नि (इत्ः) इस स्थान से (अप, बाधताम्) दूर करें (पद्येन) प्राप्त होने योग्य (रपसा) अपराध से (माम्) मुझको रोग प्राप्त होता है, वह मुझ को (मा) मत (विदत्) प्राप्त हो ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य ब्रह्मचर्य्य को छोड़ के बालकपन में विवाह वा कुपथ्य करते हैं, उनके शरीर में शोध आदि रोग होते हैं, उनका निवारण वैद्यक-रीति से करना चाहिये ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अग्नि चिकित्सा

पदार्थान्वयभाषाः - पदार्थ - (यत्) = जो (वन्दनं) = देह को जकड़नेवाला विष (विजामन्) = विविध पीड़ा के उत्पत्ति स्थान रूप पेट या (परुषि) = सन्धि स्थान पर (भुवत्) = उत्पन्न होता है और जो (अष्ठीवन्तौ) = स्थूल अस्थि से युक्त गोडों और (कुल्फौ) = पैर के टखनों को (परि देहत्) = सुजा दे, (तत्) = उस विषमय रोग को (अग्निः) = अग्नि तत्त्व (शोचत्) = सन्तप्त करता हुआ (इतः बाधताम्) = इस देह से दूर करे। (त्सरुः) = छद्म गति से छुए देह में फैलनेवाला रोग (पद्येन रपसा) = पैर में विद्यमान दुःखदायी रोग रूप से (मा मां विदत्) = मुझे प्राप्त न हो।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- कुशल वैद्य अग्नि प्रधान द्रव्यों से गठिया, सन्धिवात- जोड़ों के दर्द आदि रोगों को दूर करके प्रजा को नीरोग करे। इसके साथ सूर्य किरण चिकित्सा, अग्निताप चिकित्सा आदि प्राकृतिक पद्धति का भी आश्रय लेवें।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः रोगनिवारणार्थं किं कर्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यद्यस्मिन् परुषि वन्दनं विजामन् भुवत् यत्सरू रोगोऽष्ठीवन्तौ कुल्फौ च परिदेहत् तत्तमग्निः शोचन्नितोऽपबाधतां यः पद्येन रपसा मां रोगः प्राप्नोति स मां मा विदत् ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यस्मिन् (विजामन्) विजानन् (परुषि) कठोरे व्यवहारे (वन्दनम्) (भुवत्) भवति (अष्ठीवन्तौ) ष्ठीवनं कफादिकमत्यजन्तौ (परि) सर्वतः (कुल्फौ) गुल्फौ (च) (देहत्) वर्धये (अग्निः) (तत्) (शोचन्) पवित्रीकुर्वन् (अप) (बाधताम्) निवारयतु (इतः) अस्मात्सः (मा) निषेधे (माम्) (पद्येन) (रपसा) अपराधेन (विदत्) (त्सरुः) कठिनो रोगः ॥२॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या ब्रह्मचर्यं विहाय बाल्यविवाहं कुपथ्यं च कुर्वन्ति तेषां शरीरेषु शोथादयो रोगाः प्रभवन्ति तेषां निवारणं वैद्यकरीत्या कार्यम् ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Let Agni, heat treatment and fire element, burn away and keep off all tumours or rheumatic disease corresponding to the joints and bone density, pain which swells and burns ankles and knees and reaches up to the hips and stomach. Let no surreptitious disease beginning with the feet and creeping up by infection touch me.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे ब्रह्मचर्याचा त्याग करून बालपणी विवाह किंवा कुपथ्य करतात त्यांच्या शरीरात शोथ इत्यादी रोग होतात. त्यांचे निवारण वैद्यकरीतीने केले पाहिजे. ॥ २ ॥