स॒मु॒द्रज्ये॑ष्ठाः सलि॒लस्य॒ मध्या॑त्पुना॒ना य॒न्त्यनि॑विशमानाः। इन्द्रो॒ या व॒ज्री वृ॑ष॒भो र॒राद॒ ता आपो॑ दे॒वीरि॒ह माम॑वन्तु ॥१॥
samudrajyeṣṭhāḥ salilasya madhyāt punānā yanty aniviśamānāḥ | indro yā vajrī vṛṣabho rarāda tā āpo devīr iha mām avantu ||
स॒मु॒द्रऽज्ये॑ष्ठाः। स॒लि॒लस्य॑। मध्या॑त्। पु॒ना॒नाः। य॒न्ति॒। अनि॑ऽविशमानाः। इन्द्रः॑। या। व॒ज्री। वृ॒ष॒भः। र॒राद॑। ताः। आपः॑। दे॒वीः। इ॒ह। माम्। अ॒व॒न्तु॒ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब चार ऋचावाले उनंचासवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में फिर वे जल कैसे हैं, इस विषय को कहते हैं ॥
हरिशरण सिद्धान्तालंकार
राष्ट्र रक्षा
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्ता आपः कीदृश्यः सन्तीत्याह ॥
हे विद्वांसो ! यास्समुद्रज्येष्ठाः पुनाना अनिविशमाना आपस्सलिलस्य मध्याद्यन्ति मामिहावन्तु ता देवीर्वृषभो वज्रीन्द्रो रराद तथा यूयं भवत ॥१॥
डॉ. तुलसी राम
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात जलाच्या गुण, कर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
