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य॒दा वी॒रस्य॑ रे॒वतो॑ दुरो॒णे स्यो॑न॒शीरति॑थिरा॒चिके॑तत्। सुप्री॑तो अ॒ग्निः सुधि॑तो॒ दम॒ आ स वि॒शे दा॑ति॒ वार्य॒मिय॑त्यै ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yadā vīrasya revato duroṇe syonaśīr atithir āciketat | suprīto agniḥ sudhito dama ā sa viśe dāti vāryam iyatyai ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

य॒दा। वी॒रस्य॑। रे॒वतः॑। दु॒रो॒णे। स्यो॒न॒ऽशीः। अति॑थिः। आ॒ऽचिके॑तत्। सुऽप्री॑तः। अ॒ग्निः। सुऽधि॑तः। दमे॑। आ। सः। वि॒शे। दा॒ति॒। वार्य॑म्। इय॑त्यै ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:42» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:9» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर अतिथि और गृहस्थ परस्पर क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यदा) जब (स्योनशीः) सुख से सोनेवाला (अतिथिः) सत्य उपदेशक (रेवतः) बहुत धनवाले (वीरस्य) वीर के (दुरोणे) घर में (आ, चिकेतत्) सब ओर से जानता है तब (सः) वह (अग्निः) अग्नि के समान पवित्र (सुधितः) अच्छा हित करनेवाला (सुप्रीतः) सुन्दर प्रसन्न गृहस्थ के (दमे) घर में (इयत्यै) सुखप्राप्ति की इच्छा के लिये (विशे) और प्रजा सन्तान के लिये (वार्यम्) स्वीकार करने योग्य विज्ञान को (आ,दाति) सब ओर से देता है ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जब विद्वान् धार्मिक उपदेश करनेवाला अतिथि जन तुम्हारे घरों को आवे तब अच्छे प्रकार उसका सत्कार करो, हे अतिथि ! जब जहाँ-जहाँ आप रमण भ्रमण करें, वहाँ-वहाँ सब के लिये सत्य उपदेश करें ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अतिथि यज्ञ

पदार्थान्वयभाषाः - पदार्थ - (यदा) = जब (वीरस्य) = वीर क्षत्रिय और (रेवतः) = धनाढ्य वैश्य के (दुरोणे) = गृह में (अतिथि:) = अतिथि, विद्वान्, परिव्राजक, (स्योनशी:) = सुख से रहे और प्राप्त हो, वह (दमे) = गृह में (सुधित:) = सुखपूर्वक धारित (अग्निः) = अग्नि तुल्य तेजस्वी पुरुष (सुप्रीतः) = प्रसन्न होकर (इयत्यै) = सुखेच्छुक (विशे) = प्रजा के लिये (वार्यं आदाति) = उत्तम ज्ञान देता और उसके हितार्थ ही स्वयं भी (वार्यम् आ दाति) = वरणीय धनादि लेता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- भ्रमणशील विद्वान्, संन्यासी, साधक, योगी, जब कभी वीर क्षत्रिय तथा धनाढ्य वैश्य गृहस्थ के द्वार पर आवें तो उन अतिथियों का प्रसन्नता पूर्वक अपने गृह पर सत्कार करेंइससे घर की सन्तति सुसंस्कारित हो ज्ञान, वीरता तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति कर सकेगी। क्योंकि अतिथि अपना-अपना ज्ञान गृहस्थ के घर में बाँटकर जाएँगे।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरतिथिगृहस्थाः परस्परं किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

यदा स्योनशीरतिथी रेवतो वीरस्य दुरोण आ चिकेतत्तदा सोऽग्निरिव सुधितः सुप्रीतो गृहस्थस्य दमे इयत्यै विशे वार्यमा दाति ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यदा) (वीरस्य) (रेवतः) बहुधनयुक्तस्य (दुरोणे) गृहे (स्योनशीः) यः सुखेन शेते सः (अतिथिः) सत्योपदेशकः (आचिकेतत्) समन्ताद्विजानाति (सुप्रीतः) सुष्ठु प्रसन्नः (अग्निः) पावक इव पवित्रतेजस्वी (सुधितः) सुष्ठु हितकारी (दमे) गृहे (आ) (सः) (विशे) प्रजायै (दाति) ददाति (वार्यम्) वरणीयं विज्ञानं (इयत्यै) सुखप्राप्तीच्छायै ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यदा विद्वान् धार्मिक उपदेशकोऽतिथिर्युष्माकं गृहाण्यागच्छेत्तदा सम्यगेनं सत्कुरुत। हे अतिथे ! यदा यत्र यत्र भवान् रमणं कुर्यात्तत्र सर्वेभ्यः सत्यमुपदिशेत् ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - When Agni, brilliant and blissful honoured guest, is welcomed in the house of the brave and prosperous host, then Agni, happy, well provided and comfortably rested at home, gives to the host and his people the gifts of knowledge and wealth they desire.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जेव्हा विद्वान धार्मिक उपदेश करणारा अतिथी तुमच्या घरी येतो तेव्हा चांगल्या प्रकारे त्याचा सत्कार करा. अतिथी जेव्हा ज्या ज्या ठिकाणी भ्रमण करतात, रमतात तेथे तेथे त्यांनी सर्वांना सत्याचा उपदेश करावा. ॥ ४ ॥