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आ वो॒ वाहि॑ष्ठो वहतु स्त॒वध्यै॒ रथो॑ वाजा ऋभुक्षणो॒ अमृ॑क्तः। अ॒भि त्रि॑पृ॒ष्ठैः सव॑नेषु॒ सोमै॒र्मदे॑ सुशिप्रा म॒हभिः॑ पृणध्वम् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā vo vāhiṣṭho vahatu stavadhyai ratho vājā ṛbhukṣaṇo amṛktaḥ | abhi tripṛṣṭhaiḥ savaneṣu somair made suśiprā mahabhiḥ pṛṇadhvam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। वः॒। वाहि॑ष्ठः। व॒ह॒तु॒। स्त॒वध्यै॑। रथः॑। वा॒जाः॒। ऋ॒भु॒क्ष॒णः॒। अमृ॑क्तः। अ॒भि। त्रि॑ऽपृ॒ष्ठैः। सव॑नेषु। सोमैः॑। मदे॑। सु॒ऽशि॒प्राः॒। म॒हऽभिः॑। पृ॒ण॒ध्व॒म् ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:37» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:3» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सैंतीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् जन क्या प्राप्त करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सुशिप्राः) सुन्दर ठोढ़ी और नासिकावाले (वाजाः) विज्ञानवान् (ऋभुक्षणः) मेधावी बुद्धिमान् ! जो (वः) तुम्हारा (अमृक्तः) न नष्ट हुआ (वाहिष्ठः) अत्यन्त पहुँचानेवाला (रथः) रमण करने योग्य यान (मदे) आनन्द के लिये (त्रिपृष्ठैः) तीन जानने योग्य रूप जिन के विद्यमान उन (महभिः) सत्कार और (सोमैः) ऐश्वर्य्य वा ओषधि आदि पदार्थों से (सवनेषु) उत्तम कामों में (स्तवध्यै) स्तुति करने को हम को सब ओर से पहुँचाता है, वही तुम को (अभि, आ, वहतु) सब ओर पहुँचावे उस को तुम (पृणध्वम्) पूरो, सिद्ध करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वानो ! तुम हम लोगों को रथ से चाहे हुए स्थान को पहुँचने के समान पढ़ाने से विद्या को पहुँचाओ ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

तेजस्वी पुरुष

पदार्थान्वयभाषाः - पदार्थ - हे (वाजाः) = बलशाली जनो! हे (ऋभुक्षणः) = तेज से चमकनेवाले सूर्यवत् तेजस्वी पुरुषो! (वः) = तुम लोगों को (रथः) = रमणीय, रसस्वरूप (अमृक्तः) = अविनाशी (वाहिष्ठः) = रथ- समान सबको उद्देश्य तक उठाकर पहुँचा देने में सर्वश्रेष्ठ (आ वहतु) = सब प्रकार से रथ के समान धारण करे; वही (स्तवध्यै) = स्तुति- योग्य है। हे (सु-शिप्राः) = सौम्य-मुख जनो! (सवनेषु) = यज्ञादि कर्मों के समय आप लोग (महभिः) = महत्त्व-युक्त (त्रिपृष्ठैः सोमैः) = तीन-तीन रूपोंवाले ऐश्वर्यों, अन्नों और ज्ञानों से (मदे) = आनन्द में (अभि पृणध्वम्) = सबको पूर्ण करो।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- तेजस्वी विज्ञानवेत्ता पुरुष राष्ट्र में यज्ञ विज्ञान को प्रतिष्ठित करें। यज्ञ कर्म की प्रत्येक क्रिया का विश्लेषण करके राष्ट्र तथा प्रजा जनों को तेजस्वी बनने का मार्ग प्रशस्त करें। और यह भी बतावें कि यज्ञ द्वारा ऐश्वर्य, अन्न, ज्ञान तथा आनन्द की वृद्धि होती है।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वांसः किं प्रापयन्त्वित्याह ॥

अन्वय:

हे सुशिप्रा वाजा ऋभुक्षणो यो वोऽमृतो वाहिष्ठो रथो मदे त्रिपृष्ठैर्महभिस्सोमैः सवनेषु स्तवध्या अस्मानभ्यावहति स एव युष्मानप्यभ्या वहतु यूयं तं पृणध्वम् ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) (वः) युष्माकम् (वाहिष्ठः) अतिशयेन वोढा (वहतु) (स्तवध्यै) स्तोतुम् (रथः) रमणीयं यानम् (वाजाः) विज्ञानवन्तः (ऋभुक्षणः) मेधाविनः (अमृक्तः) अहिंसितः (अभि) आभिमुख्ये (त्रिपृष्ठैः) त्रीणि पृष्ठानि ज्ञीप्सितव्यानि येषां तैः (सवनेषु) उत्तमकर्मसु (सोमैः) ऐश्वर्यौषध्यादिभिः पदार्थैः (मदे) आनन्दाय (सुशिप्राः) शोभनहनुनासिकाः (महभिः) सत्कारैः (पृणध्वम्) पूरयत ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वांसो ! यूयमस्मान् रथेनाभीष्टं स्थानमिवाध्यापनेन विद्याः प्रापयन्तु ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Rbhus, high spiritual experts of science and technology, equipped with noble visor and helmet, come and join this celebration of ours to enjoy yourselves on abundant thrice distilled and seasoned drinks of soma in our yajnic meets. Let your strongest, fastest and unbreakable chariot transport you here. Regale yourselves and refine the yajna to perfection.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विश्वेदेवांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - हे विद्वानांनो ! तुम्ही आम्हाला रथाद्वारे इच्छित स्थानी पोहोचविण्याप्रमाणे अध्यापन करा व विद्या शिकवा. ॥ १ ॥