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तन्न॒ इन्द्रो॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॒ग्निराप॒ ओष॑धीर्व॒निनो॑ जुषन्त। शर्म॑न्त्स्याम म॒रुता॑मु॒पस्थे॑ यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥२५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tan na indro varuṇo mitro agnir āpa oṣadhīr vanino juṣanta | śarman syāma marutām upasthe yūyam pāta svastibhiḥ sadā naḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तत्। नः॒। इन्द्रः॑। वरु॑णः। मि॒त्रः। अ॒ग्निः। आपः॑। ओष॑धीः। व॒निनः॑। जु॒ष॒न्त॒। शर्म॑न्। स्या॒म॒। म॒रुता॑म्। उ॒पऽस्थे॑। यू॒यम्। पा॒त॒। स्व॒स्तिऽभिः॑। सदा॑। नः॒ ॥२५॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:34» मन्त्र:25 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:27» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:25


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर सेव्य-सेवक और अध्यापक-अध्येता जन परस्पर कैसे वर्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! जो (वनिनः) किरणवान् (इन्द्रः) बिजुली के समान राजा (वरुणः) श्रेष्ठ (मित्रः) मित्रजन (अग्निः) पावक (आपः) जल और (ओषधीः) यवादि ओषधी (नः) हमारे लिये (तत्) उस सुख को (जुषन्त) सेवते हैं जिससे (यूयम्) तुम (स्वस्तिभिः) सुखों से (नः) हम लोगों की (सदा) सर्वदैव (पात) रक्षा करो उन तुम (मरुताम्) लोगों के (उपस्थे) समीप (शर्मन्) सुख में हम लोग स्थिर (स्याम) हों ॥२५॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को ऐसी इच्छा करनी चाहिये कि विद्वानों के सङ्ग से जैसे बिजुली आदि पदार्थ अपने कामों को सेवें, वैसे हम लोग अनुष्ठान करें ॥२५॥ इस सूक्त में अध्येता, अध्यापक, स्त्री, पुरुष, राजा, प्रजा, सेना, भृत्य और विश्वेदेवों के गुण और कर्मों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह चौंतीसवाँ सूक्त और सत्ताईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

औषधियाँ अलौकिक सुखदायी हों

पदार्थान्वयभाषाः - पदार्थ- (वनिनः) = ऐश्वर्यों के स्वामी (इन्द्रः) = ऐश्वर्यवान्, (वरुणः) = प्रजा का वृत राजा, (मित्र:) = स्नेही, (अग्निः) = विद्वान् (आपः) = आप्तजन (ओषधीः) = ओषधियें ये (नः) = हमें (तत्) = वह सुख (जुषन्त) = प्राप्त करावें, जिससे हम (मरुताम् उपस्थे) = विद्वानों के पास (शर्मन् स्याम) = सुख में रहें। हे विद्वान् पुरुषो ! (यूयं) = आप लोग (नः सदा स्वस्तिभिः पात) = हमारी सदा कल्याणकारी उपायों से रक्षा करो।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- राजा को योग्य है कि वह विद्वान् जनों को प्रजा के कल्याण हेतु नियुक्त करे। वे विद्वान् जन स्त्री-पुरुषों को उपदेश करें कि किन-किन दिव्य एवं अलौकिक औषधियों के द्वारा उत्तम स्वास्थ्य प्राप्त करके सुखी एवं आनन्दित हुआ जा सकता है। अगले सूक्त का ऋषि वसिष्ठ व देवता विश्वे देवा है।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सेव्यसेवकाध्यापकाध्येतारः परस्परं कथं वर्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! ये वनिन इन्द्रो वरुणो मित्रोऽग्निराप ओषधीश्च नस्तञ्जुषन्त येन यूयं स्वस्तिभिर्नः सदा पात तेषां युष्माकं मरुतामुपस्थे शर्मन् वयं स्थिराः स्याम ॥२५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) सुखम् (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्रः) विद्युदिव राजा (वरुणः) श्रेष्ठः (मित्रः) सखा (अग्निः) पावकः (आपः) जलानि (ओषधीः) यवाद्याः (वनिनः) किरणवन्तः (जुषन्त) सेवन्ते (शर्मन्) शर्मणि सुखे गृहे वा (स्याम) भवेम (मरुताम्) मनुष्याणाम् (उपस्थे) समीपे (यूयम्) (पात) (स्वस्तिभिः) सुखादिभिः (सदा) (नः) अस्मान् ॥२५॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैरिदमेष्टव्यं विदुषां सङ्गेन यथा विद्युदादयः पदार्थास्स्वकार्याणि सेवेरन् तथा वयमनु तिष्ठेमेति ॥२५॥ अत्राध्येत्रध्यापकस्त्रीपुरुषराजप्रजासेनाभृत्यविश्वेदेवगुणकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति चतुस्त्रिंशत्तमं सूक्तं सप्तविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - May Indra, ruling lord of the world, Varuna, the ocean and the world’s powers of judgement and discrimination, Mitra, the sun and our brilliant friends, Agni, cosmic fire and the leaders, Apah, spatial waters and our people of holy action, and the herbs and trees of the earth, all brilliant and inspiring, be favourable and generous. May we, we pray, live close under the protection of the best of human world and nature. O divine powers of nature and humanity, protect, preserve and promote us with all good fortune and well being of life all round, all ways, all time.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी अशी इच्छा करावी की जसे विद्युत इत्यादी पदार्थ आपले काम करतात तसे विद्वानांच्या संगतीने आपणही कार्य करावे. ॥ २५ ॥