ब्रह्मा॑ ण इ॒न्द्रोप॑ याहि वि॒द्वान॒र्वाञ्च॑स्ते॒ हर॑यः सन्तु यु॒क्ताः। विश्वे॑ चि॒द्धि त्वा॑ वि॒हव॑न्त॒ मर्ता॑ अ॒स्माक॒मिच्छृ॑णुहि विश्वमिन्व ॥१॥
brahmā ṇa indropa yāhi vidvān arvāñcas te harayaḥ santu yuktāḥ | viśve cid dhi tvā vihavanta martā asmākam ic chṛṇuhi viśvaminva ||
ब्रह्मा॑। नः॒। इ॒न्द्र॒। उप॑। या॒हि॒। वि॒द्वान्। अ॒र्वाञ्चः॑। ते॒। हर॑यः। स॒न्तु॒। यु॒क्ताः। विश्वे॑। चि॒त्। हि। त्वा॒। वि॒ऽहव॑न्त। मर्ताः॑। अ॒स्माक॑म्। इत्। शृ॒णु॒हि॒। वि॒श्व॒म्ऽइ॒न्व॒ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पाँच ऋचावाले अट्ठाईसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में वह राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥
हरिशरण सिद्धान्तालंकार
उत्तम विद्वान के कर्त्तव्य
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ स राजा किं कुर्यादित्याह ॥
हे विश्वमिन्वेन्द्र विद्वांस्त्वं नो ब्रह्मोप याहि यस्य तेऽर्वाञ्चो हरयो युक्ताः सन्तु ये चिद्धि विश्वे मर्त्तास्त्वा वि हवन्त तैस्सहाऽस्माकं वाक्यमिच्छृणुहि ॥१॥
डॉ. तुलसी राम
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात इंद्र, विद्वान, राजगुण व कर्मांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
