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ए॒वा वसि॑ष्ठ॒ इन्द्र॑मू॒तये॒ नॄन्कृ॑ष्टी॒नां वृ॑ष॒भं सु॒ते गृ॑णाति। स॒ह॒स्रिण॒ उप॑ नो माहि॒ वाजा॑न्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

evā vasiṣṭha indram ūtaye nṝn kṛṣṭīnāṁ vṛṣabhaṁ sute gṛṇāti | sahasriṇa upa no māhi vājān yūyam pāta svastibhiḥ sadā naḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒व। वसि॑ष्ठः। इन्द्र॑म्। ऊ॒तये॑। नॄन्। कृ॒ष्टी॒नाम्। वृ॒ष॒भम्। सु॒ते। गृ॒णा॒ति॒। स॒ह॒स्रिणः॑। उप॑। नः॒। मा॒हि॒। वाजा॑न्। यू॒यम्। पा॒त॒। स्व॒स्तिऽभिः॑। सदा॑। नः॒ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:26» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:10» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् जन राजा आदि मनुष्यों को धर्म-मार्ग में नित्य अच्छे प्रकार रक्खे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् (वसिष्ठः) अत्यन्त विद्या में वास जिन्होंने किया ऐसे आप ! (कृष्टीनाम्) मनुष्यादि प्रजाजनों के बीच (वृषभम्) अत्युत्तम (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवान् जीव और (नॄन्) नायक मनुष्यों की (ऊतये) रक्षा आदि के लिये (एव) ही (माहि) सत्कार कीजिये (सुते) उत्पन्न हुए इस जगत् में (सहस्रिणः) सहस्रों पदार्थ जिनके विद्यमान उन (वाजान्) विज्ञान वा अन्नादियुक्त (नः) हम लोगों को जो आप (उप, गृणाति) सत्य उपदेश देते हैं सो निरन्तर मान कीजिये। हे विद्वानो ! (यूयम्) तुम (स्वस्तिभिः) कल्याणों से (नः) हम लोगों की (सदा) सर्वदा (पात) रक्षा करो ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् जनो ! तुम ऐसा प्रयत्न करो जिससे राजा आदि जन धार्मिक होकर असंख्य धन वा अतुल आनन्द को प्राप्त हों, जैसे आप उनकी रक्षा करते हैं, वैसे ये आपकी निरन्तर रक्षा करें ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र शब्द शब्द से जीव, राजा के कर्म और गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह छब्बीसवाँ सूक्त और दसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

कृषि वृद्धि हेतु प्रयत्न करें

पदार्थान्वयभाषाः - पदार्थ (सुते) = अन्न को उत्पन्न करने के लिये जैसे (कृष्टीनां) = खेतियों के वृद्ध्यर्थ (वृषभं) = वर्षक मेघ की विद्वान् स्तुति करते हैं और अन्न के उत्पन्न करने के लिये जैसे (कृष्टीनां) = खेती करने हारों के बीच (वृषभं) = बलवान् बैल की स्तुति की जाती है, वैसे (वसिष्ठः) = देशवासी उत्तम जन (सुते) = ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये और (ऊतये) = रक्षार्थ भी (कृष्टीनां) = मनुष्यों में (वृषभं) = श्रेष्ठ (इन्द्रं) = ऐश्वर्ययुक्त पुरुष की (गृणाति) = स्तुति करता है । हे राजन् ! तू (न:) = हमें (सहस्रिणः वाजान्) = सहस्रों सुखों से युक्त ऐश्वर्य (उप माहि) = दे। हे विद्वान् पुरुषो! (यूयं) = आप लोग (नः सदा स्वस्तिभिः पात) = हमारी सदा उत्तम उपायों से रक्षा करें।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- राजा व प्रजा दोनों मिलकर ऐसा प्रयत्न करें कि जिससे राष्ट्र की भूमि उन्नत कृषि अन्न भण्डार भरे रहें जिससे प्रजा सुखी रहे। के योग्य बने। इस प्रकार उन्नत कृषि द्वारा के अगले सूक्त का वसिष्ठ ऋषि व इन्द्र देवता है।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वान् राजादीन् मनुष्यान् धर्म्ये पथि नित्यं संरक्षेदित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वन् वसिष्ठस्त्वं कृष्टीनां वृषभमिन्द्रं नॄँश्चोतय एव माहि सुते सहस्रिणो वाजान्नोऽस्मान् यो भवानुपगृणाति सततं माहि। हे विद्वांसो ! जना यूयं स्वस्तिभिर्नः सदैव पात ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एवा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (वसिष्ठः) अतिशयेन विद्यासु कृतवासः (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तम् (ऊतये) रक्षाद्याय (नॄन्) नायकान् (कृष्टीनाम्) मनुष्यादिप्रजानां मध्ये (वृषभम्) अत्युत्तमम् (सुते) उत्पन्नेऽस्मिञ्जगति (गृणाति) सत्यमुपदिशति (सहस्रिणः) सहस्राण्यसङ्ख्याताः पदार्था विद्यन्ते येषां तान् (उप) (नः) अस्मान् (माहि) सत्कुरु (वाजान्) विज्ञानाऽन्नादियुक्तान् (यूयम्) (पात) (स्वस्तिभिः) सदा (नः) ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वांसो ! यूयमेवं प्रयतध्वं येन राजादयो जना धार्मिका भूत्वाऽसंख्यं धनमतुलमानन्दं प्राप्नुयुर्यथा भवन्तस्तेषां रक्षां कुर्वन्ति तथैते भवतः सततं रक्षन्त्विति ॥५॥ अत्रेन्द्रशब्देन जीवराजकृत्यगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति षड्विंशतितमं सूक्तं दशमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Thus does the ardent sage settled in peace and wisdom celebrate Indra, the soul and generous ruler of the world and leading lights of humanity for the sake of defence and protection in the social order of the lord’s creation. May the lord bring us a thousand fold honour and excellence in food, sustenance and knowledge. O lord and leaders, protect and promote us with all your gifts of good fortune and all round well being as ever.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे विद्वानांनो! तुम्ही असा प्रयत्न करा, ज्यामुळे राजा वगैरेंनी धार्मिक बनावे व त्यांना असंख्य धन किंवा अतुल आनंद प्राप्त व्हावा. जसे तुम्ही त्यांचे रक्षण करता तसे त्यांनीही तुमचे निरंतर रक्षण करावे. ॥ ५ ॥