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आ ते॑ म॒ह इ॑न्द्रोत्यु॑ग्र॒ सम॑न्यवो॒ यत्स॒मर॑न्त॒ सेनाः॑। पता॑ति दि॒द्युन्नर्य॑स्य बा॒ह्वोर्मा ते॒ मनो॑ विष्व॒द्र्य१॒॑ग्वि चा॑रीत् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā te maha indroty ugra samanyavo yat samaranta senāḥ | patāti didyun naryasya bāhvor mā te mano viṣvadryag vi cārīt ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। ते॒। म॒हः। इ॒न्द्र॒। ऊ॒ती। उ॒ग्र॒। सऽम॑न्यवः। यत्। स॒म्ऽअर॑न्त। सेनाः॑। पता॑ति। दि॒द्युत्। नर्य॑स्य। बा॒ह्वोः। मा। ते॒। मनः॑। वि॒ष्व॒द्र्य॑क्। वि। चा॒री॒त् ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:25» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:9» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब छः ऋचावाले पच्चीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में कैसी सेना उत्तम होती है, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (उग्र) शत्रुओं के मारने में कठिन स्वभाववाले (इन्द्र) सेनापति ! (यत्) जिस (नर्यस्य) मनुष्यों में साधु (महः) महान् (ते) आप के (समन्यवः) क्रोध के साथ वर्त्तमान (सेनाः) सेना (ऊती) रक्षण आदि क्रिया से (आ, समरन्त) सब ओर से अच्छी जाती हैं उन (ते) आप की (बाह्वोः) भुजाओं में (दिद्युत्) निरन्तर प्रकाशमान युद्धक्रिया (मा) मत (पताति) गिरे, मत नष्ट हो और तुम्हारा (मनः) चित्त (विष्वद्र्यक्) सब ओर से प्राप्त होता हुआ (वि, चारीत्) विचरता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे सेनाधिपति ! जब संग्राम समय में आओ तब जो क्रोध प्रज्वलित क्रोधाग्नि से जलती हुई सेना शत्रुओं के ऊपर गिरें, उस समय वे विजय को प्राप्त हों, जब तक तुम्हारा बाहुबल न फैले मन भी अन्याय में न प्रवृत्त हो, तब तक तुम्हारी उन्नति होती है, यह जानो ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

राष्ट्र रक्षार्थ अस्त्र-शस्त्र उद्योग लगावें

पदार्थान्वयभाषाः - पदार्थ- हे (इन्द्र) = ऐश्वर्यवन्! हे (अति उग्र) = प्रचण्ड ! (यत्) = जब (महते) = तुझ महान् की (समन्यवः) = क्रोध-युक्त गर्व- पूर्ण (सेना:) = सेनाएँ (ऊती) = देश-रक्षा के लिये (सम्-अरन्त) = आगे बढ़ें तब (नर्यस्य) = मनुष्यों में श्रेष्ठ (ते) = तेरे (बाह्वो:) = बाहुओं में (दिद्युत्) = चमकता शस्त्रास्त्र (पताति) = शत्रु पर पड़े (ते मनः) = तेरा चित्त (विष्वद्र्यग् मा विचारीत्) = सब तरफ न जाय।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - राजा को योग्य है कि राष्ट्र की रक्षा के लिए बड़ी-बड़ी आयुध निर्माणी उद्योगशालायें लगावे, जिससे शत्रुजन भयभीत होते रहें।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ कीदृशी सेना वरा स्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे उग्रेन्द्र ! यद्यस्य नर्यस्य महस्ते समन्यवः सेना ऊती आसमरन्त तस्य ते बाह्वोर्दिद्युन्मा पताति ते मनो विष्वद्र्यग्विचारीत् ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (ते) तव (महः) महतः (इन्द्र) सेनापते (ऊती) ऊत्या रक्षणाद्यया क्रियया (उग्र) शत्रूणां हनने कठिनस्वभाव (समन्यवः) मन्युना क्रोधेन सह वर्त्तमानाः (यत्) यस्य (समरन्त) सम्यग् गच्छन्ति (सेनाः) (पताति) पतेत् (दिद्युत्) देदीप्यमानाः (नर्यस्य) नृषु साधोः (बाह्वोः) भुजयोः (मा) (ते) तव (मनः) चित्तम् (विष्वद्र्यक्) यद्विष्वगञ्चति व्याप्नोति तत् (वि) (चारीत्) विशेषेण चरति ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे सेनाधिपते ! यदा सङ्ग्रामसमय आगच्छेत्तदा या क्रोधेन प्रज्वलिताः सेनाः शत्रूणामुपरि पतेयुस्तदा ता विजयं लभेरन् यावत्तव बाहुबलं न हृष्येत मनश्चान्याये न प्रवर्तेत तावत्तवोन्नतिर्जायत इति विजानीहि ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, blazing lord of glory and illustrious commander of the forces of defence and protection, when your armies impassioned by ardent zeal march forward, the thunderbolt in your hands, O magnificent leader of humanity, flashing and blazing, falls upon the enemy. O lord, your mind instantly traversing over spaces otherwise, would never ramble from us but hit the target.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात सेनापती, राजा व शस्त्र, अस्त्र तयार करणे इत्यादी वर्णन करण्याने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - हे सेनापती ! युद्धात क्रोधाग्नीने प्रज्वलित सेना जेव्हा शत्रूवर तुटून पडते त्यावेळी विजय प्राप्त होतो. जोपर्यंत तुमचे बाहुबल न्यून होत नाही व मनही अन्यायात प्रवृत्त होत नाही तोपर्यंत तुमची उन्नती होते हे जाणा. ॥ १ ॥