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स॒द्यश्चि॒न्नु ते॑ मघवन्न॒भिष्टौ॒ नरः॑ शंसन्त्युक्थ॒शास॑ उ॒क्था। ये ते॒ हवे॑भि॒र्वि प॒णीँरदा॑शन्न॒स्मान्वृ॑णीष्व॒ युज्या॑य॒ तस्मै॑ ॥९॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sadyaś cin nu te maghavann abhiṣṭau naraḥ śaṁsanty ukthaśāsa ukthā | ye te havebhir vi paṇīm̐r adāśann asmān vṛṇīṣva yujyāya tasmai ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒द्यः। चि॒त्। नु। ते॒। म॒घ॒ऽव॒न्। अ॒भिष्टौ॑। नरः॑। शं॒स॒न्ति॒। उ॒क्थ॒ऽशासः॑। उ॒क्था। ये। ते॒। हवे॑भिः। वि। प॒णीन्। अदा॑शन्। अ॒स्मान्। वृ॒णी॒ष्व॒। युज्या॑य। तस्मै॑ ॥९॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:19» मन्त्र:9 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:30» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर पढ़ने और पढ़ानेवाले परस्पर कैसे वर्ताव वर्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मघवन्) प्रशंसनीय विद्या के अध्यापक ! जो (उक्थशासः) प्रशंसा करने योग्य मन्त्रों के अर्थों की शिक्षा देनेवाले (नरः) विद्वान् जन (ते) तुम्हारी (अभिष्टौ) सब ओर से प्रिय वेला में (सद्यः) शीघ्र (चित्) ही (उक्था) प्रशंसित वचनों को (शंसन्ति) प्रबन्ध से कहते हैं और (ये) जो (हवेभिः) हवनों के साथ (ते) आपके (विपणीन्) व्यवहारों को (नु, अदाशन्) ही देते हैं उन्हें और (अस्मान्) हम लोगों को (तस्मै) उस (युज्याय) युक्त करने योग्य व्यवहार के लिये (वृणीष्व) स्वीकार कीजिये ॥९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे विद्वान् अध्यापक ! तुम हम लोगों को वेदार्थ शीघ्र ग्रहण कराओ, जिससे हम लोग भी अध्यापन करावें ॥९॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

पणीन् वि अदाशत्

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! (ते अभिष्टौ) = आपकी अभ्येषणा [प्रार्थना] में (उक्थशासः) = स्तोत्रों का शंसन करनेवाले ये (नरः) = स्तोता लोग (सद्य चित्) = शीघ्र ही (नु) = निश्चय से (उक्था) = स्तोत्रों को शंसन्ति उच्चरित करते हैं। [२] (ये) = जो (ते हवेभिः) = आपकी पुकारों सेआराधनाओं से (पणीन्) = वणिक् वृत्तिवालों को भी (वि अदाशन्) = विशेषरूप से दानवृत्तिवाला बना देते हैं, उन (अस्मान्) = हमें (तस्मै यज्याय) = उस अपनी मित्रता के लिये (वृणीष्व) = करिये। हम आपकी मित्रता में चलें। आपकी आराधना करते हुए कृपणों को दानशील बनाने का यत्न करें ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु की आराधना में हम स्तोत्रों का उच्चारण करें। प्रभु की आराधना में पवित्र जीवनवाले बनते हुए हम कृपणों को भी दानशील बना पायें। प्रभु की मित्रता को प्राप्त करें।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः पठकपाठकाः [=पाठकादयः] परस्परं कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

हे मघवन् ! य उक्थशासो नरस्तेऽभिष्टौ सद्यश्चिदुक्था शंसन्ति ये च हवेभिस्ते विपणीन्न्वादाशँस्तानस्माँश्च तस्मै युज्याय वृणीष्व ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सद्यः) (चित्) अपि (नु) इव (ते) तव (मघवन्) पूजनीयविद्याऽध्यापक (अभिष्टौ) अभिप्रियायाम् नीतौ (नरः) (शंसन्ति) (उक्थशासः) य उक्थानां प्रशंसनीयानां मन्त्राणामर्थञ्छासन्ति ते (उक्था) उक्थानि प्रशंसनीयानि वचनानि (ये) (ते) (हवेभिः) हवनैः (वि) (पणीन्) व्यवहर्तॄन् (अदाशन्) ददति (अस्मान्) (वृणीष्व) स्वीकुर्याः (युज्याय) योक्तुं योग्याय व्यवहाराय (तस्मै) ॥९॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । हे विद्वन्नध्यापक ! यूयमस्मान् वेदार्थं सद्यो ग्राहयत येन वयमप्यध्यापनं कुर्याम ॥९॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O lord of light, honour and excellence of generosity, select us for dedication to that holy work which, under the protection of your love and goodwill, leading scholars and interpreters of the Divine Word relentlessly pursue, reciting and teaching the Vedic songs of divinity and, by recitation and exhortation, converting even hard headed businessmen to generous givers of charity in the service of Divinity.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे विद्वान अध्यापका ! तू आम्हाला तात्काळ वेदार्थ ग्रहण करव. ज्यामुळे आम्हीही अध्यापन करावे. ॥ ९ ॥