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प्रि॒यास॒ इत्ते॑ मघवन्न॒भिष्टौ॒ नरो॑ मदेम शर॒णे सखा॑यः। नि तु॒र्वशं॒ नि याद्वं॑ शिशीह्यतिथि॒ग्वाय॒ शंस्यं॑ करि॒ष्यन् ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

priyāsa it te maghavann abhiṣṭau naro madema śaraṇe sakhāyaḥ | ni turvaśaṁ ni yādvaṁ śiśīhy atithigvāya śaṁsyaṁ kariṣyan ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रि॒यासः॑। इत्। ते॒। म॒घ॒ऽव॒न्। अ॒भिष्टौ॑। नरः॑। म॒दे॒म॒। श॒र॒णे। सखा॑यः। नि। तु॒र्वश॑म्। नि। याद्व॑म्। शि॒शी॒हि॒। अ॒ति॒थि॒ऽग्वाय॑। शंस्य॑म्। क॒रि॒ष्यन् ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:19» मन्त्र:8 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:30» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य परस्पर कैसे वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मघवन्) बहुत धन देनेवाले ! (सखायः) मित्र होते हुए (प्रियासः) प्रीतिमान् वा प्रसन्न हुए (नरः) नायक मनुष्य हम लोग (ते) आपके (अभिष्टौ) सब ओर से प्रिय सङ्गति अर्थात् मेल मिलाप में (शरणे) शरणागत की पालना करने कर्म में (मदेम) आनन्दित हों। आप (तुर्वशम्) निकटस्थ मनुष्य को (नि, शिशीहि) निरन्तर तीक्ष्ण कीजिये और (याद्वम्) जो जाते हैं उन पर जो जाता है उसको (नि) निरन्तर तीक्ष्ण कीजिये और (अतिथिग्वाय) अतिथियों के गमन के लिये (शंस्यम्) प्रशंसनीय को (इत्) ही (करिष्यन्) करते हुए तीक्ष्ण कीजिये ॥८॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! जो शुभ गुणों के आचरण से युक्त तुम में प्रीतिमान् हों, उन धार्मिक जनों को प्रशंसित कीजिये, जैसे अतिथियों का आगमन हो, वैसा विधान कीजिये ॥८॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'तुर्वश, याद्व, अतिथिग्व'

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (मघवन्) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (ते अभिष्टौ) = आपकी अभ्येषणा में, प्रार्थना व आराधना में (ते) = आपके (प्रियासः इत्) = प्रिय ही हों। (नरः) = उन्नति-पथ पर चलनेवाले हम [ते] (सखायः) = आपके मित्र बनकर आपकी शरणे शरण में (मदेम) = आनन्द का अनुभव करें। [२] हे प्रभो! आप (तुर्वशम्) = त्वरा से शत्रुओं को वश में करनेवाले इस उपासक को (निशिशीहि) = खूब तीक्ष्ण करिये, यह बड़ा तीक्ष्णबुद्धि बने। (याद्वम्) = इस यत्नशील मनुष्य को (नि) [शिशीहि] = तीक्ष्ण करिये, काम-क्रोध आदि शत्रुओं के लिये भयंकर बनाइये। अतिथिग्वाय अतिथियों के सत्कार के लिये उनके प्रति जानेवाले इस उपासक के लिये आप सदा शंस्यम्=प्रशंसनीय बातों को ही (करिष्यन्) = करनेवाले होते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु की आराधना करते हुए हम प्रभु के प्रिय बनें। प्रभु के मित्र बनकर प्रभु की शरण में आनन्द का अनुभव करें। ओं को वश करनेवाले, यत्नशील व अतिथि सेवी बनें प्रभु अवश्य हमारा कल्याण करेंगे।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः परस्परं कथं वर्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

हे मघवन् ! सखायः प्रियासो नरो वयं तेऽभिष्टौ शरणे मदेम त्वं तुर्वशं नि शिशीहि याद्वं नि शिशीह्यतिथिग्वाय शंस्यमित्करिष्यञ्छिशीहि ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रियासः) प्रीतिमन्तः प्रीता वा (इत्) एव (ते) तव (मघवन्) बहुधनप्रद (अभिष्टौ) अभिप्रियायां सङ्गतौ (नरः) नायकाः (मदेम) आनन्देम (शरणे) शरणागतपालने कर्मणि (सखायः) मित्राः सन्तः (नि) (तुर्वशम्) निकटस्थं जनम्। तुर्वश इति अन्तिकनाम। (निघं०२.१६)। (नि) (याद्वम्) ये यान्ति तान् यो याति तम् (शिशीहि) तीक्ष्णीकुरु (अतिथिग्वाय) अतिथीनां गमनाय (शंस्यम्) प्रशंसनीयम् (करिष्यन्) ॥८॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! ये शुभगुणकर्मस्वभावाचरणेन युक्तास्त्वयि प्रीतिमन्तः स्युस्तान् धार्मिकान् प्रशंसितान् कुरु यथाऽतिथीनामागमनं स्यात्तथा विधेहि ॥८॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Lord of wealth, honour and excellence, let us all, leaders and friends of yours, abide and rejoice as your dearest in the protective shelter of your love and good will for our desired aims. Inspire and refine the nearest settled neighbour as well as the traveller on the move, raising the generous host in honour and praise for hospitality.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! शुभ गुणांच्या आचरणांनी युक्त असलेल्या व तुझ्यावर प्रेम करणाऱ्या धार्मिक लोकांची प्रशंसा कर. जसे अतिथीचे आगमन होईल असा नियम बनव. ॥ ८ ॥