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देवता: इन्द्र: ऋषि: वसिष्ठः छन्द: पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः

त्वं नृभि॑र्नृमणो दे॒ववी॑तौ॒ भूरी॑णि वृ॒त्रा ह॑र्यश्व हंसि। त्वं नि दस्युं॒ चुमु॑रिं॒ धुनिं॒ चास्वा॑पयो द॒भीत॑ये सु॒हन्तु॑ ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ nṛbhir nṛmaṇo devavītau bhūrīṇi vṛtrā haryaśva haṁsi | tvaṁ ni dasyuṁ cumuriṁ dhuniṁ cāsvāpayo dabhītaye suhantu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। नृऽभिः॑। नृ॒ऽम॒नः॒। दे॒वऽवी॑तौ। भूरी॑णि। वृ॒त्रा। ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒। हं॒सि॒। त्वम्। नि। दस्यु॑म्। चुमु॑रिम्। धुनि॑म्। च॒। अस्वा॑पयः। द॒भीत॑ये। सु॒ऽहन्तु॑ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:19» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:29» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (हर्यश्व) मनोहर घोड़ा से युक्त (नृमणः) और न्यायाधीशों में मन रखनेवाले राजन् ! (त्वम्) आप (नृभिः) न्याय प्राप्ति करानेवाले विद्वानों के साथ (देववीतौ) विद्वानों की प्राप्ति जिस व्यवहार में होती उसमें (भूरीणि) बहुत (वृत्रा) शत्रुसैन्यजन वा धनों को (हंसि) नाशते वा प्राप्त होते हैं (त्वम्) आप (धुनिम्) श्रेष्ठों को कंपानेवाले (चुमुरिम्) चोर और (दस्युम्) दुष्ट आचरण करनेवाले साहसी जन को (नि, अस्वापयः) मार कर सुलाओ तथा (दभीतये) हिंसा के लिये (च) भी दुष्टों को आप (सुहन्तु) अच्छे प्रकार नाशो ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे राजा ! आप सदैव सत्पुरुषों का सङ्ग न्याय से राज्य को पाल के धन की इच्छा और दुष्ट डाकुओं को निवार के प्रजापालना निरन्तर करो ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'दस्यु चुमुरि धुनि' का विनाश

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (नृमणः) = उन्नति-पथ पर चलनेवालों से मननीय [नृभिः मननीय] प्रभो ! (त्वम्) = आप (देववीतौ) = दिव्यगुणों की प्राप्ति के निमित्त (नृभिः) = इन मनुष्यों के द्वारा भूरीणि बहुत भी वृत्रावासनारूप शत्रुओं को हंसि नष्ट करते हैं। वृत्र विनाश ही 'देव वीति' का [=दिव्यगुणों की प्राप्ति का] कारण बनता है। [२] हे (हर्यश्व) = कमनीय इन्द्रियरूप अश्वोंवाले प्रभो! (त्वम्) = आप (दभीतये) = वासनाओं का विनाश करनेवाले इस पुरुष के लिये (सुहन्तु) = सम्यक् हनन साधन वज्र के द्वाराक्रियाशीलता के द्वारा (दस्युम्) = विनाशक लोभ को, (चुमुरिम्) = शक्ति को पी जानेवाली [शक्ति का आचमन कर जानेवाली] काम-वासना को, (धुनिं च) = कम्पित करनेवाले क्रोध को (नि अस्वापयः) = निश्चय से सुला देते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु उपासक की वासनाओं को विनष्ट करके उसे दिव्यगुण सम्पन्न बनाते लोभ-काम व क्रोध को समाप्त करके उसे सुन्दर जीवन प्राप्त कराते हैं।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा किं कुर्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे हर्यश्व नृमणो राजँस्त्वं नृभिः सह देववीतौ भूरीणि वृत्रा हंसि त्वं धुनिं चुमुरिं दस्युं न्यस्वापयो दभीतये च दुष्टान् भवान् सुहन्तु ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (नृभिः) न्यायनेतृभिः सज्जनैः सह (नृमणः) नृषु न्यायाधीशेषु मनो यस्य तत्सम्बुद्धौ (देववीतौ) देवानां वीतिः प्राप्तिर्यस्मिन् व्यवहारे तस्मिन् (भूरीणि) बहूनि (वृत्रा) वृत्राणि शत्रुसैन्यानि धनानि वा (हर्यश्व) कमनीयाश्व (हंसि) नाशयसि प्राप्नोषि वा (त्वम्) (नि) (दस्युम्) दुष्टाचारं साहसिकम् (चुमुरिम्) चोरम् (धुनिम्) श्रेष्ठानां कम्पयितारम् (च) (अस्वापयः) हत्वा शापय (दभीतये) हिंसनाय (सुहन्तु) शोभनेन प्रकारेण नाशयतु ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! भवान् सदैव सत्पुरुषसङ्गं न्यायेन राज्यं पालयित्वा धनेच्छां दुष्टान् दस्यून्निवार्य्य प्रजापालनं सततं कुरु ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O leader and commander equipped with transport, communications and armoured fighting forces, cherished and honoured ruler of the heart of the nation, in the battle business of the protection and advancement of the divinities of nature and humanity you fight out and eliminate the cumulated forces of darkness and destruction with the assistance and cooperation of the leading people. You lay to sleep and totally destroy the violent criminal, the thief and the terrorist in order to suppress and root out the forces of negation and destruction.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! तू सदैव सत्पुरुषांचा संग, न्यायाने राज्यपालन करून, धनाची इच्छा व दुष्ट डाकूंचे निवारण करून निरंतर प्रजापालन कर. ॥ ४ ॥