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देवता: इन्द्र: ऋषि: वसिष्ठः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

यस्ति॒ग्मशृ॑ङ्गो वृष॒भो न भी॒म एकः॑ कृ॒ष्टीश्च्या॒वय॑ति॒ प्र विश्वाः॑। यः शश्व॑तो॒ अदा॑शुषो॒ गय॑स्य प्रय॒न्तासि॒ सुष्वि॑तराय॒ वेदः॑ ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yas tigmaśṛṅgo vṛṣabho na bhīma ekaḥ kṛṣṭīś cyāvayati pra viśvāḥ | yaḥ śaśvato adāśuṣo gayasya prayantāsi suṣvitarāya vedaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः। ति॒ग्मऽशृ॑ङ्गः। वृ॒ष॒भः। न। भी॒मः। एकः॑। कृ॒ष्टीः। च्य॒वय॑ति। प्र। विश्वाः॑। यः। शश्व॑तः। अदा॑शुषः। गय॑स्य। प्र॒ऽय॒न्ता। अ॒सि॒। सु॒स्वि॑ऽतराय। वेदः॑ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:19» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:29» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ग्यारह ऋचावाले उन्नीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में कैसा राजा उत्तम राजा होता है, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! (यः) जो कल्याण जन (तिग्मशङ्गः) तीक्ष्ण किरणों से युक्त (वृषभः) वर्षा (भीमः) भय करनेवाले सूर्य के (न) समान (एकः) अकेला (विश्वाः) समग्र प्रजा (कृष्टीः) मनुष्यों को (प्र, च्यावयति) अच्छे प्रकार चलाता है और (यः) जो (शश्वतः) निरन्तर (अदाशुषः) न देनेवाले के (गयस्य) सन्तान के (सुष्वितराय) सुन्दर अतीव ऐश्वर्यको निकालनेवाले के लिये (वेदः) विज्ञान वा धन को करता है, उसके जिससे तुम (प्रयन्ता) उत्तमता से नियम करनेवाले (असि) हो, इससे अधिक मानने योग्य हो ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य वा बिजुली वर्षा करने से सुख देनेवाली और तीव्र ताप से वा पड़ जाने से भयंकर है, वैसे जो राजा विद्याध्ययन के लिये सन्तानों को नहीं देते उनके लिये दण्ड देनेवाला वा ब्रह्मचर्य्य से सब की विद्या बढ़ानेवाला राजा हो, उसी को सब स्वीकार करें ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'प्रयन्ता' प्रभु

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यः) = जो (तिग्मशृङ्गः वृषभः न) = तेज सींगोंवाले बैल के समान (भीमः) = शत्रुओं के लिये भयङ्कर हैं। वे (एकः) = अकेले ही (विश्वाः) = सब (कृष्टी:) = शत्रुभूत मनुष्यों को (प्रच्यावयति) = स्थान से प्रच्युत करनेवाले हैं। हम जब अपने हृदयों में इन प्रभु का स्थापन करते हैं, तो ये हमारे सब काम-क्रोध आदि शत्रुओं का विनाश करनेवाले होते हैं। [२] (यः) = जो प्रभु (अदाशुषः) = अदाश्वान् (अदाता) = अयज्ञशील पुरुष के (शश्वतः) = बहुत भी (गयस्य) = धन के (प्रयन्ता असि) = नियमन करनेवाले, अपहरण कर लेनेवाले हैं, वे ही प्रभु (सुष्वि-तराय) = खूब ही सवन करनेवाले यज्ञशील पुरुष के लिये (वेदः) = धन को (प्रयन्तासि असि) = देनेवाले हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु उपासक के शत्रुओं को नष्ट करनेवाले हैं। अयज्ञशील के धन का अपहरण करनेवाले हैं तथा यज्ञशील के लिये धन को देनेवाले हैं।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ कीदृशो राजा राजोत्तमो भवतीत्याह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! यो भद्रो जनस्तिग्मशृङ्गो वृषभो भीमो नैको विश्वा कृष्टीः प्र च्यावयति यः शश्वतोऽदाशुषो गयस्य सुष्वितराय वेदः करोति तस्य यतस्त्वं प्रयन्तासि तस्मादधिकमाननीयोऽसि ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) (तिग्मशृङ्गः) तिग्मानि तेजस्वीनि शृङ्गानि किरणा यस्य सूर्यस्य सः (वृषभः) वृष्टिकरः (न) इव (भीमः) भयङ्करः (एकः) असहायः (कृष्टीः) मनुष्याः (च्यावयति) चालयति (प्र) (विश्वाः) समग्राः प्रजाः (यः) (शश्वतः) अनादिभूतस्य (अदाशुषः) अदातुः (गयस्य) अपत्यस्य (प्रयन्ता) प्रकर्षेण नियन्ता (असि) (सुष्वितराय) सुष्ठ्वतिशयितमैश्वर्यं यः सुनोति तस्मै (वेदः) विज्ञानं धनं वा। वेद इति धननाम। (निघं०२.१०) ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथा सूर्यो विद्युद्वा वृष्टिकरणेन सुखप्रदा तीव्रतापेन निपातेन वा भयङ्करा वर्त्तते तथा यो राजा विद्याध्ययनायाऽपत्यानि ये न समर्पयन्ति तेभ्यो दण्डदाता वा ब्रह्मचर्येण सर्वेषां विद्यावर्धको यो राजा भवेत्तमेव सर्वे स्वीकुर्वन्तु ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, lord commander of weapons sharp and blazing as rays of light, virile, generous and yet fearsome as a bull, is the one supreme who guides, controls, rules and inspires the world community, and he is the one who always is the supporting power of the house and children of the indigent who cannot afford to pay for education and development. O lord, you are the guide and giver of wealth and knowledge to the man dedicated to the yajnic development of humanity.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात इंद्राच्या दृष्टांताने राजसभा, सेनापती, अध्यापक, अध्येता, राजा, प्रजा व सेवकांच्या कामाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे सूर्य किंवा विद्युत वृष्टी करण्याने सुख देणारे असतात व तीव्र उष्णता किंवा पतन यामुळे भयंकर असतात तसे जे संतानांना विद्याध्ययन करवत नाहीत त्यांना दंड देणारा किंवा ब्रह्मचर्याने सर्वांची विद्या वर्धित करणारा राजा असेल तर त्याचाच सर्वांनी स्वीकार करावा. ॥ १ ॥