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राजे॑व॒ हि जनि॑भिः॒ क्षेष्ये॒वाव॒ द्युभि॑र॒भि वि॒दुष्क॒विः सन्। पि॒शा गिरो॑ मघव॒न्गोभि॒रश्वै॑स्त्वाय॒तः शि॑शीहि रा॒ये अ॒स्मान् ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

rājeva hi janibhiḥ kṣeṣy evāva dyubhir abhi viduṣ kaviḥ san | piśā giro maghavan gobhir aśvais tvāyataḥ śiśīhi rāye asmān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

राजा॑ऽइव। हि। जनि॑ऽभिः। क्षेषि॑। ए॒व। अव॑। द्युऽभिः॑। अ॒भि। वि॒दुः। क॒विः। सन्। पि॒शा। गिरः॑। म॒घ॒ऽव॒न्। गोभिः॑। अश्वैः॑। त्वा॒ऽय॒तः। शि॒शी॒हि॒। रा॒ये। अ॒स्मान् ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:18» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:24» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मघवन्) ऐश्वर्य्यवान् विद्वान् ! जो आप (जनिभिः) उत्पन्न हुई प्रजाओं से (राजेव) जैसे राजा जैसे (गोभिः) धेनु और (अश्वैः) घोड़ों से (राये) धन के लिये (त्वायतः) तुम्हारी कामना करते हुए (अस्मान्) हम लोगों को (शिशीहि) तेज बुद्धिवाले करो। जो (विदुः) विद्वान् (कविः) कविताई करने में चतुर (सन्) होते हुए (पिशा) रूप से (गिरः) वाणियों को तीक्ष्ण करो (द्युभिः) दिनों से (हि) ही (अभि, अव, क्षेषि) सब ओर से निरन्तर निवास करते हो (एव) उन्हीं आपको हम लोग निरन्तर उत्साहित करें ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जैसे सूर्य सब पदार्थों के साथ प्रकाशित होता है, वैसे जो राजा प्रकाशमान हो और जो हम लोगों को सत्य के चाहनेवालों को प्रसन्न करता है, वह भी सदा प्रसन्न हो ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

द्युभिः-पिशा-गोभिः-अश्वैः [अव]

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (राजा जनिभिः इव) = राजा जैसे अपनी प्रजा रूप पत्नियों के साथ रहता है इसी प्रकार आप हम प्रजाओं के साथ (क्षेषि एव) = रहते ही हैं। आप सदा हमारा रक्षण इस प्रकार कर रहे हैं, जैसे कि राजा को प्रजा का रक्षण करना चाहिए। हे प्रभो ! (विदुः) = ज्ञानी, (कविः) = क्रान्तप्रज्ञ (सन्) = होते हुए आप (गिरः) = हम स्तोताओं को (द्युभिः) = ज्ञान-ज्योतियों से (पिशा) = हिरण्य [Gold] से, (गोभिः) = उत्तम ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा तथा (अश्वैः) = उत्तम कर्मेन्द्रियों द्वारा (अभि अव) = समन्तात् रक्षित करिये। जीवन-यात्रा के लिये धन तथा इन्द्रियरूप साधनों को आप हमारे लिये प्राप्त कराइये। हम ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा ज्ञान का अर्जन करें और कर्मेन्द्रियों द्वारा जीवनयात्रा के लिये धन का अर्जन कर सकें। [२] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यवन् प्रभो ! (त्वायतः) = आपको प्राप्त करने की कामनावाले (अस्मान्) = हम लोगों को राये ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये शिशीहि तीक्ष्ण बुद्धिवाला करिये। हम आपको प्राप्त करने की कामनावाले हों। परन्तु साथ ही जीवन-यात्रा के लिये आवश्यक धन को प्राप्त करने के लिये परिष्कृत बुद्धिवाले हों।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु इस प्रकार हमारे साथ हैं, जैसे राजा प्रजा के। ये प्रभु हमें ज्ञान तथा धन देते हैं। उत्तम ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों को प्राप्त कराके हमारा रक्षण करते हैं। हम प्रभु की कामनावाले हों। प्रभु हमें जीवन यात्रा के लिये आवश्यक धन की प्राप्ति के लिये संस्कृत बुद्धि करते हैं।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा कीदृशः स्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे मघवन् विद्वन् ! यस्त्वं जनिभी राजेव गोभिरश्वै राये त्वायतोऽस्मांञ्छिशीहि विदुः कविः सन् पिशा गिरः शिशीहि द्युभिर्ह्यभ्यव क्षेषि तमेव वयं सततं प्रोत्साहयेम ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (राजेव) यथा राजा तथा (हि) (जनिभिः) प्रादुर्भूताभिः प्रजाभिः (क्षेषि) निवससि (एव) (अव) (द्युभिः) दिनैः (अभि) (विदुः) विद्वान् (कविः) काव्यादिनिर्माणे चतुरः (सन्) (पिशा) रूपेण (गिरः) वाचः (मघवन्) (गोभिः) धेनुभिः (अश्वैः) तुरङ्गैः (त्वायतः) त्वां कामयमानान् (शिशीहि) तीक्ष्णप्रज्ञान् (कुरु) (राये) धनाय (अस्मान्) ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । यथा सूर्यः सर्वैः पदार्थैस्सह प्रकाशते तथा राजा प्रकाशमानो भवेद्यो नृपः सत्यं कामयमानानस्मान् प्रीणाति सोऽपि सदा प्रसन्नः स्यात् ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Like a brilliant prince you live with the people all round, every way, every day. Being a scholar, poet and visionary, inspire us, your admirers, with your lights of wisdom, and refine our voices of admiration with gentle forms and manners. Lord of wealth, power and honour, sharpen our plans and initiatives with the development of lands and cows, horses and transport for our assets and prosperity.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा सूर्य सर्व पदार्थांसह प्रकाशित होतो तसे जो राजा प्रकाशमान असतो व जो आम्हा सत्य इच्छिणाऱ्यांना प्रसन्न करतो त्यानेही सदैव प्रसन्न राहावे. ॥ २ ॥