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देवता: अग्निः ऋषि: वसिष्ठः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

उप॑ त्वा सा॒तये॒ नरो॒ विप्रा॑सो यन्ति धी॒तिभिः॑। उपाक्ष॑रा सह॒स्रिणी॑ ॥९॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

upa tvā sātaye naro viprāso yanti dhītibhiḥ | upākṣarā sahasriṇī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उप॑। त्वा॒। सा॒तये॑। नरः॑। विप्रा॑सः। य॒न्ति॒। धी॒तिऽभिः॑। उप॑। अक्ष॑रा। स॒ह॒स्रिणी॑ ॥९॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:15» मन्त्र:9 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:19» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् क्या करते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्यार्थिनि ! जैसे (विप्रासः) बुद्धिमान् (नरः) मनुष्य (धीतिभिः) अङ्गुलियों से (अक्षरा) अकारादि अक्षरों को (उप, यन्ति) उपाय से प्राप्त करते वे जो कन्या (सहस्रिणी) असंख्य विद्याविषयों को जाननेवाली हैं, उसको जानें, वैसे (त्वा) आप के (सातये) सम्यक् विभाग के लिये बुद्धिमान् मनुष्य (उप) समीप प्राप्त हों ॥९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अंगूठा और अङ्गुलियों से अक्षरों को जान कर विद्वान् होता है, वैसे ही विद्वान् लोग शोधन कर विद्या के रहस्यों को प्राप्त हों ॥९॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

ध्यान व स्वाध्याय

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे प्रभो ! (नरः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले (विप्रासः) = ज्ञानी पुरुष (सातये) = उत्तम ऐश्वर्यों की प्राप्ति के लिये (धीतिभिः) = यज्ञ आदि कर्मों के द्वारा (त्वा उपयन्ति) = आपके समीप प्राप्त होते हैं। यज्ञ आदि कर्मों से आपकी उपासना करते हुए उत्तम ऐश्वर्यों को प्राप्त करते हैं। [२] यह (अक्षरा) = कभी नष्ट न होनेवाली (सहस्त्रिणी) = [स हस्] आमोद-प्रमोद को प्राप्त करानेवाली ज्ञान की वाणी (उप) = सदा हमें समीपता से प्राप्त हो । यह ज्ञान की वाणी ही वस्तुतः हमारे जीवनों को निर्दोष व सानन्द बनायेगी।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- ज्ञानी लोग ऐश्वर्य प्राप्ति के लिये प्रभु का उपासन करते हैं। यह ज्ञान की वाणी सदा उनके समीप रहती है, अर्थात् ये स्वाध्याय प्रवृत्त रहते हैं।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वांसः किं कुर्वन्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे विद्यार्थिनि ! यथा विप्रासो नरो धीतिभिरक्षराण्युप यन्ति ते या सहस्रिणी वर्त्तते ताञ्जानन्तु तथा त्वा सातये विप्रासो नर उप यन्ति ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उप) (त्वा) त्वाम् (सातये) संविभागाय (नरः) मनुष्याः (विप्रासः) मेधाविनः (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (धीतिभिः) अङ्गुलिभिः (उप) (अक्षरा) अक्षराण्यकारादीनि (सहस्रिणी) सहस्राण्यसंख्याता विद्याविषया विद्यन्ते यस्यां सा ॥९॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽङ्गुष्ठाऽङ्गुलीभिरक्षराणि विज्ञाय विद्वान् भवति तथैव विद्वांसः शोधनेन विद्यारहस्यानि प्राप्नुवन्ति ॥९॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Leading lights of humanity and holy sages approach you, meditate on you, for the acquisition of wealth of wisdom, you who are imperishable giver of a thousand gifts.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे अंगठा व बोटे याद्वारे अक्षरे जाणून पुढे विद्वान बनता येते तसेच विद्वान लोकांनी संशोधन करून विद्यांचे रहस्य जाणावे. ॥ ९ ॥