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वि च॑क्रमे पृथि॒वीमे॒ष ए॒तां क्षेत्रा॑य॒ विष्णु॒र्मनु॑षे दश॒स्यन् । ध्रु॒वासो॑ अस्य की॒रयो॒ जना॑स उरुक्षि॒तिं सु॒जनि॑मा चकार ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vi cakrame pṛthivīm eṣa etāṁ kṣetrāya viṣṇur manuṣe daśasyan | dhruvāso asya kīrayo janāsa urukṣitiṁ sujanimā cakāra ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि । च॒क्र॒मे॒ । पृ॒थि॒वीम् । ए॒षः । ए॒ताम् । क्षेत्रा॑य । विष्णुः॑ । मनु॑षे । द॒श॒स्यन् । ध्रु॒वासः॑ । अ॒स्य॒ । की॒रयः॑ । जना॑सः । उ॒रु॒ऽक्षि॒तिम् । सु॒ऽजनि॑मा । च॒का॒र॒ ॥ ७.१००.४

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:100» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:25» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:6» मन्त्र:4


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आर्यमुनि

अब ईश्वर स्वयं कथन करते हैं कि विचक्रमे के अर्थ निर्म्माण अर्थात् रचने के हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (विष्णुः) व्यापक पमेश्वर ने (मनुषे) मनुष्य के (क्षेत्राय) अभ्युदय (दशस्यन्) देने के लिये (पृथिवीम्,एतां) इस पृथिवी को (विचक्रमे) रचा, जिससे (अस्य) इस परमात्मा के कीर्तन करनेवाले (जनासः) भक्त लोग (धुवासः) दृढ़ हो गए, क्योंकि (उरुक्षितिं) इस विस्तृत क्षेत्ररूप पृथिवी को (सुजनिमा) सुन्दर प्रादुर्भाववाले ब्रह्माण्डपति परमात्मा ने (चकार) रचा है ॥४॥
भावार्थभाषाः - जिस पृथिवी में (सुजनिमा) सुन्दर आविर्भाववाले प्राणिजात हैं, उनका कर्त्ता जो परमात्मा है, उसने इस सम्पूर्ण विश्व को रचा है। विष्णु के अर्थ यहाँ “यज्ञो वै विष्णुः” ॥ श. प.॥ “तस्माद् यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे” ॥ यजु०  ३१.७॥ इत्यादि प्रमाणों से व्यापक परमात्मा के हैं। यही बात विष्णुसूक्तों में सर्वत्र पायी जाती है। इस भाव को वेद ने अन्यत्र भी वर्णन किया है कि “द्यावाभूमी जनयन्देव एकः” ॥ यजु०॥ एक परमात्मा ने सब लोक-लोकान्तरों को रचा है ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

बसने योग्य भूमि का स्रष्टा

पदार्थान्वयभाषाः - पदार्थ - (एषः) = वह (विष्णुः) = व्यापक परमेश्वर (एतां पृथिवीम्) = इस पृथिवी को (मनुषे दशस्यन्) = मनुष्यों को दान देता हुआ (क्षेत्राय) = निवास करने के लिये (वि चक्रमे) = विविध प्रकार का बनाता है। (अस्य) = इसकी (कीरयः) = स्तुति करनेवाले (जनास:) = जन्तु, आत्मगण (ध्रुवासः) = नित्य हैं। वह पृथ्वी को (उरु क्षितिम्) = बहुत जीवों से बसने योग्य और (सुजनिम्) = उत्तम रीति से जन्तुओं, अन्नादि, वनस्पतियों को उत्पादक आ चकार बनाता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- उस व्यापक परमेश्वर ने इस भूमि को बसने के योग्य बनाकर जीवों के लिए दान दी है। फिर सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्न, औषधियाँ, वनस्पतियाँ तथा जीवजन्तुओं को भी बनाता है। ऐसे दानी प्रभु की स्तुति किया करो।
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आर्यमुनि

अथेश्वरः स्वयमेव विक्रमिरची समानार्थत्वेन कथयति।

पदार्थान्वयभाषाः - (विष्णुः) व्यापक ईश्वरः (मनुषे, क्षेत्राय, दशस्यन्) मनुष्याय क्षेत्रं दित्सन् (पृथिवीम्, एताम्, विचक्रमे) इमां भुवं कृतवान्, यतः (अस्य) अस्य परमात्मनः (कीरयः) स्तोतारः (जनासः) भक्ताः (ध्रुवासः) दृढा अभवन् यतः (उरुक्षितिम्) विस्तृतां पृथिवीं (सुजनिमा) सर्वाङ्गशोभनां (चकार) कृतवान् ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Vishnu, this lord omnipresent, with the desire to give humanity a place of birth and a home for dwelling and sphere of action, made this wide earth and set it in motion. Poet celebrants of this lord, men with constant mind, celebrate the glorious manifested maker and sing that he it is that made the wide earth for their dwelling and place of action.