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एहि॒ वां वि॑मुचो नपा॒दाघृ॑णे॒ सं स॑चावहै। र॒थीर्ऋ॒तस्य॑ नो भव ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ehi vāṁ vimuco napād āghṛṇe saṁ sacāvahai | rathīr ṛtasya no bhava ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। इ॒हि॒। वाम्। वि॒ऽमु॒चः॒। न॒पा॒त्। आघृ॑णे। सम्। स॒चा॒व॒है॒। र॒थीः। ऋ॒तस्य॑। नः॒। भ॒व॒ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:55» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:21» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:5» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब छः ऋचावाले पचपनवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में किसका संग करना योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (आघृणे) सब ओर से देदीप्यमान (नपात्) जो नहीं गिरते वह आप (नः) हमारे लिये (ऋतस्य) सत्य के सम्बन्धी (रथीः) बहुत रथोंवाले (भव) हो तथा आप हम लोगों को (आ, इहि) प्राप्त होओ। हे अध्यापक और उपदेशको ! (वाम्) तुम दोनों को हे उक्त विद्वन् ! आप (विमुचः) छोड़ो तथा आप और मैं (सम्, सचावहै) सम्बन्ध करें ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वान् सत्य की पालना करनेवाला, सत्य का उपदेशक हो वह और सुननेवाला, मित्र होकर तथा सत्यविद्या को प्राप्त होकर औरों को भी विद्या को प्राप्त करावें ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ कः सङ्गन्तव्य इत्याह ॥

अन्वय:

हे आघृणे नपात् ! त्वं न ऋतस्य रथीर्भव न आ इहि, हे अध्यापकोपदेशकौ ! वामुक्तविद्वंस्त्वं विमुचस्त्वमहञ्च सं सचावहै ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (इहि) प्राप्नुहि (वाम्) युवाम् (विमुचः) मोचय (नपात्) यो न पतति सः (आघृणे) समन्ताद्देदीप्यमान (सम्) (सचावहै) सम्बध्नीयाव (रथीः) बहुरथवान् (ऋतस्य) सत्यस्य (नः) अस्मभ्यम् (भव) ॥१॥
भावार्थभाषाः - यो विद्वान् सत्यपालकः सत्योपदेष्टा भवेत्स श्रोता च सखायौ त्वा सत्यविद्यां प्राप्तौ भूत्वाऽन्यानपि प्रापयेताम् ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जो विद्वान सत्यपालन करणारा, सत्याचा उपदेशक, श्रोता व मित्र आहे, त्याने सत्य विद्या प्राप्त करून इतरांनाही ती विद्या द्यावी. ॥ १ ॥