उदु॒ त्यच्चक्षु॒र्महि॑ मि॒त्रयो॒राँ एति॑ प्रि॒यं वरु॑णयो॒रद॑ब्धम्। ऋ॒तस्य॒ शुचि॑ दर्श॒तमनी॑कं रु॒क्मो न दि॒व उदि॑ता॒ व्य॑द्यौत् ॥१॥
ud u tyac cakṣur mahi mitrayor ām̐ eti priyaṁ varuṇayor adabdham | ṛtasya śuci darśatam anīkaṁ rukmo na diva uditā vy adyaut ||
उत्। ऊँ॒ इति॑। त्यत्। चक्षुः॑। महि॑। मि॒त्रयोः॑। आ। एति॑। प्रि॒यम्। वरु॑णयोः। अद॑ब्धम्। ऋ॒तस्य॑। शुचि॑। द॒र्श॒तम्। अनी॑कम्। रु॒क्मः। न। दि॒वः। उत्ऽइ॑ता॑। वि। अ॒द्यौ॒त् ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब सोलह ऋचावाले इक्यावनवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर मनुष्यों को क्या चाहने योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥
हरिशरण सिद्धान्तालंकार
'द्युलोक का भूषण' सूर्य
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनर्मनुष्यैः किमेष्टव्यमित्याह ॥
हे अध्यापकोपदेशका ! यदि युष्मांस्त्यन्महि वरुणयोः प्रियं मित्रयोरदब्धमृतस्य शुचि दर्शतं दिव उदिता रुक्मो नाऽनीकं महि चक्षुर्व्यद्यौदा उदेति तर्हि भवन्ति उ विद्वांसो भवेयुः ॥१॥
डॉ. तुलसी राम
आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड
What should men desire-is told.
O teachers and preachers! if you obtain that eye of knowledge, which is dear to your friends-teachers and preachers, who are like Udāna (a vital energy) or two Pranas, one internal and the other external-uninjured or inviolable, and worth seeing vision of truth, like the resplendent sun at sun rise, born from electricity, accomplisher of many works like army- then you can become really enlightened.
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात विश्वेदेवाच्या कर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
