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य ओजि॑ष्ठ इन्द्र॒ तं सु नो॑ दा॒ मदो॑ वृषन्त्स्वभि॒ष्टिर्दास्वा॑न्। सौव॑श्व्यं॒ यो व॒नव॒त्स्वश्वो॑ वृ॒त्रा स॒मत्सु॑ सा॒सह॑द॒मित्रा॑न् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ya ojiṣṭha indra taṁ su no dā mado vṛṣan svabhiṣṭir dāsvān | sauvaśvyaṁ yo vanavat svaśvo vṛtrā samatsu sāsahad amitrān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः। ओजि॑ष्ठः। इ॒न्द्र॒। तम्। सु। नः॒। दाः॒। मदः॑। वृ॒ष॒न्। सु॒ऽअ॒भि॒ष्टिः। दास्वा॑न्। सौव॑श्व्यम्। यः। व॒नऽव॑त्। सु॒ऽअश्वः॑। वृ॒त्रा। स॒मत्ऽसु॑। स॒सह॑त्। अ॒मित्रा॑न् ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:33» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:5» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पाँच ऋचावाले तेंतीसवें सूक्त का प्रारम्भ किया जाता है उसके प्रथम मन्त्र में राजा क्या करके क्या करावे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वृषन्) तेजस्वी (इन्द्र) ऐश्वर्य्य के देनेवाले (यः) जो (ओजिष्ठः) अतिशय बली (मदः) हर्षित हुए (स्वभिष्टिः) अच्छी सङ्गतिवाले (दास्वान्) दाता वह आप (नः) हम लोगों के लिये (सौवश्व्यम्) सुन्दर घोड़ों और बड़े पदार्थों में हुए को (सु) उत्तम प्रकार (दाः) दीजिये और (यः) जो (स्वश्वः) अच्छे घोड़ोंवाला हुआ (वृत्रा) धनों की (वनवत्) याचना करता है तथा (समत्सु) संग्रामों में (अमित्रान्) शत्रुओं को (सासहत्) अत्यन्त सहता है (तम्) उसका हम लोग सत्कार करें ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो अभय देनेवाला और सङ्ग्रामों में जीतनेवाला तथा दिन-रात अपने बल को बढ़ाता है, वही सब को सुखी करने को योग्य है ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'ओजिष्ठ-मद-स्वभिष्टि-दास्वान्' सन्तान

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (वृषन्) = सब कामनाओं का वर्षण करनेवाले (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यः) = जो सन्तान (ओजिष्ठ:) = खूब ओजस्विता व बलवत्तम है, (मदः) = मादयिता-आनन्दित करनेवाला है, (स्वभिष्टिः) = शोभनाभ्येषण है- अच्छी प्रकार शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाला है तथा (दास्वान्) = हवियों को देनेवाला है, (तम्) = उस पुत्र को (तः) = हमारे लिये (सु) = [सुष्टु] अच्छी प्रकार (दाः) = दीजिये । [२] उस पुत्र को दीजिये जो (स्वश्वः) = उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाला होता हुआ (सौवश्व्यम्) = उत्तम इन्द्रियाश्व समूह को (वनवत्) = जीतता है [वन् = win] तथा (समत्सु) = संग्रामों में (अमित्रान्) = शत्रुभूत (वृत्रा) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को (सासहत्) = अतिशयेन अभिभूत करता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हमारे सन्तान बलवान्, अपनी क्रियाओं से आनन्दित करनेवाले, शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाले व दानशील हों। ये वासनाओं को विनष्ट करनेवाले हों ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ नृपः किं कृत्वा किं कारयेदित्याह ॥

अन्वय:

हे वृषन्निन्द्र ! य ओजिष्ठो मदः स्वभिष्टिर्दास्वान् स त्वं नः सौवश्व्यं सु दाः। यः स्वश्वः सन् वृत्रा वनवत् समत्स्वमित्रान्त्सासहत् तं वयं सत्कुर्याम ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) (ओजिष्ठः) अतिशयेन बली (इन्द्र) ऐश्वर्यप्रद (तम्) (सु) (नः) (अस्मभ्यम्) (दाः) देहि (मदः) हर्षितः (वृषन्) तेजस्विन् (स्वभिष्टिः) सुष्ठ्वभिनता सङ्गतिर्यस्य सः (दास्वान्) दाता (सौवश्व्यम्) शोभनेष्वश्वेषु महत्सु पदार्थेषु वा भवम् (यः) (वनवत्) याचते (स्वश्वः) शोभना अश्वा यस्य सः (वृत्रा) धनानि (समत्सु) सङ्ग्रामेषु (सासहत्) भृशं सहते (अमित्रान्) शत्रून् ॥१॥
भावार्थभाषाः - योऽभयदाता सङ्ग्रामेषु विजेता स्वं बलमहर्निशं वर्धयति स एव सर्वान् सुखयितुमर्हति ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, lord of honour and excellence, ruler most illustrious, generous, victorious and beneficent, inspired with ardent passion, give us that stormy force of dynamic action for achievement which, equipped with instant and unfailing capability, may fight out the unfriendly powers of darkness in the contests of life and win the wealths of high value in the world for our cherished goal.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

What should a king do and urge others to do-is told.

अन्वय:

O giver of prosperity ! you who are the mighty, delighted and splendid, worthy of association and liberal donor, give us the joy of horses or great articles. We honor you, who are possessor of good horses trying to acquire wealth of all kinds and subdues his foes in battles.

भावार्थभाषाः - He alone can make all happy, who is giver of fearlessness, conqueror in battles and who increases his strength every day.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात इंद्र, राजा व प्रजेचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जो अभयदाता असून युद्धात विजेता असतो व अहर्निश आपले बल वाढवितो तोच सर्वांना सुखी करतो. ॥ १ ॥