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अनु॑ ते दायि म॒ह इ॑न्द्रि॒याय॑ स॒त्रा ते॒ विश्व॒मनु॑ वृत्र॒हत्ये॑। अनु॑ क्ष॒त्रमनु॒ सहो॑ यज॒त्रेन्द्र॑ दे॒वेभि॒रनु॑ ते नृ॒षह्ये॑ ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

anu te dāyi maha indriyāya satrā te viśvam anu vṛtrahatye | anu kṣatram anu saho yajatrendra devebhir anu te nṛṣahye ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अनु॑। ते॒। दा॒यि॒। म॒हे। इ॒न्द्रि॒याय॑। स॒त्रा। ते॒। विश्व॑म्। अनु॑। वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑। अनु॑। क्ष॒त्रम्। अनु॑। सहः॑। य॒ज॒त्र॒। इन्द्र॑। दे॒वेभिः॑। अनु॑। ते॒। नृ॒ऽसह्ये॑ ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:25» मन्त्र:8 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:20» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (यजत्र) अत्यन्त श्रेष्ठ (इन्द्र) शत्रुओं के नाश करनेवाले राजन् ! आपको चाहिये कि (नृषह्ये) मनुष्यों से सहने योग्य संग्राम में (देवेभिः) विद्वानों के साथ (महे) बृहत् को (अनु, दायि) देवें और (ते) आपके (इन्द्रियाय) धन के लिये (ते) आपके (सत्रा) सत्य से (विश्वम्) सम्पूर्ण जगत् को (अनु) पश्चात् देवें और (वृत्रहत्ये) मेघ के नाश करने के समान सङ्ग्राम में (क्षत्रम्) राज्य वा धन को (अनु) पश्चात् देवें और (सहः) बल को (अनु) पश्चात् देवें और (ते) आपके मनुष्यों से सहने योग्य सङ्ग्राम में सुख को (अनु) पश्चात् देवें ॥८॥
भावार्थभाषाः - हे क्षत्रियकुल में उत्पन्न हुए जन ! आप उत्तम कर्मों को करिये और उनके साथ अनुकूल हुए उनका धन आदि से निरन्तर सत्कार करिये और सदा ही सत्य के उपदेशक विद्वानों के सङ्ग से सम्पूर्ण राजविद्या को जानकर निरन्तर प्रचार करिये ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा किं कुर्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे यजत्रेन्द्र ! त्वया नृषह्ये देवेभिस्सह महेऽनुदायि त इन्द्रियाय ते सत्रा विश्वमनु दायि वृत्रहत्ये क्षत्रमनुदायि सहोऽनुदायि ते नृषह्ये सुखमनुदायि ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अनु) (ते) तव (दायि) दीयते (महे) महत् (इन्द्रियाय) धनाय (सत्रा) सत्येन (ते) तव (विश्वम्) सर्वं जगत् (अनु) (वृत्रहत्ये) मेघहननमिव सङ्ग्रामे (अनु) (क्षत्रम्) राज्यं धनं वा (अनु) (सहः) बलम् (यजत्र) पूजनीयतम (इन्द्र) शत्रुविदारक राजन् (देवेभिः) विद्वद्भिः सह (अनु) (ते) तव (नृषह्ये) नृभिः सोढव्ये सङ्ग्रामे ॥८॥
भावार्थभाषाः - हे राजन्य ! त्वमुत्तमानि कर्माणि कुर्यास्तैरनुकूलः संस्तान् धनादिभिः सततं सत्कुर्याः सदैव सत्योपदेशकानां विदुषां सङ्गेनाऽखिलां राजविद्यां विज्ञाय सततं प्रचारय ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! तू उत्तम कर्म कर व अनुकूल असलेल्यांचा धन वगैरेनी सत्कार कर. सदैव सत्याचे उपदेशक असलेल्या विद्वानांच्या संगतीने संपूर्ण राजविद्या जाणून निरंतर प्रचार कर. ॥ ८ ॥