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अ॒ग्निर्वृ॒त्राणि॑ जङ्घनद्द्रविण॒स्युर्वि॑प॒न्यया॑। समि॑द्धः शु॒क्र आहु॑तः ॥३४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agnir vṛtrāṇi jaṅghanad draviṇasyur vipanyayā | samiddhaḥ śukra āhutaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निः। वृ॒त्राणि॑। ज॒ङ्घ॒न॒त्। द्र॒वि॒ण॒स्युः। वि॒प॒न्यया॑। सम्ऽइ॑द्धः। शु॒क्रः। आऽहु॑तः ॥३४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:16» मन्त्र:34 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:27» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:34


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! उद्योगवाले जैसे (शुक्रः) शीघ्रकारिणी (समिद्धः) प्रदीप्त (अग्निः) बिजुली (वृत्राणि) धनों को (जङ्घनत्) अत्यन्त प्राप्त होती है, वैसे (द्रविणस्युः) अपने धन की इच्छा करनेवाले (आहुतः) सब प्रकार सत्कार को प्राप्त आप (विपन्यया) विशिष्ट उद्यम से धनों को प्राप्त होओ ॥३४॥
भावार्थभाषाः - जो निरन्तर उद्यम करते वे दारिद्र्य का नाश करते हैं ॥३४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

द्रविणस्युः - आहुतः

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अग्निः) = वे अग्रेणी प्रभु ! (वृत्राणि) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को (जङ्घनत्) = विनष्ट करते हैं। वस्तुतः प्रभु की उपस्थिति में कामदेव का तो (विध्वंस) = हो जाता है। वे प्रभु वृत्रों का विनाश करके हमारे लिये (द्रविणस्युः) = द्रविणों, धनों को, ज्ञानधन को चाहते हैं । [२] हमारे लिये ज्ञान को प्राप्त करानेवाले वे प्रभु (विपन्यया) = विशिष्ट स्तुति के द्वारा (समिद्धः) = हृदयदेश समिद्ध किये जाते हैं। (शुक्रः) = वे प्रभु दीप्त हैं। हमारे हृदयों में समिद्ध होने पर उन हृदयों को दीप्त करनेवाले हैं । (आहुतः) = [ आ हुतं यस्या] समन्तात् प्रभु का होतृत्व व्यक्त हो रहा है। सर्वत्र जीवहित के लिये प्रभु के दान विद्यमान हैं। इन सब वस्तुओं का ठीक प्रयोग करते हुए हम जीवनयात्रा को पूर्ण करके मोक्ष को प्राप्त करते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु हमारे वासनारूप शत्रुओं को नष्ट करते हैं और हमारे लिये ज्ञानधनों को प्राप्त कराते हैं। विशिष्ट स्तुति के द्वारा हृदय में समिद्ध हुए-हुए वे प्रभु हमें दीप्त करते हैं। इन प्रभु की ही दानक्रियाएँ सर्वत्र दृष्टिगोचर होती हैं।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे विद्वन्नुद्यमिन् ! यथा शुक्रः समिद्धोऽग्निर्वृत्राणि जङ्घनत् तथा द्रविणस्युराहुतस्त्वं विपन्यया वृत्राणि प्राप्नुहि ॥३४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) विद्युत् (वृत्राणि) धनानि। वृत्रमिति धननाम। (निघं०२.१०) (जङ्घनत्) भृशं हन्ति प्राप्नोति (द्रविणस्युः) आत्मनो द्रविणमिच्छुः (विपन्यया) विशिष्टोद्यमेन (समिद्धः) प्रदीप्तः (शुक्रः) आशुकारी (आहुतः) समन्तात् कृतसत्कारः ॥३४॥
भावार्थभाषाः - ये सततमुद्यमं कुर्वन्ति ते दारिद्र्यं घ्नन्ति ॥३४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Agni, leading light and ruler of the world, bright, pure and purifying, invoked, invited and lighted in the seat of yajna, keen on wealth, honour and excellence with self-approbation and public exaltation, should destroy the evils and endeavour to raise the power and prosperity of the human nation.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The same subject is continued.

अन्वय:

O industrious learned person, as rapid-going electricity when used properly causes the acquisition of wealth, (prosperity), so you being desirous of acquiring riches and respecting worthy person, industriously gain wealth.

भावार्थभाषाः - Those who are constantly industrious, eradicate poverty.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे सतत उद्योग करतात, ते दारिद्र्याचा नाश करतात. ॥ ३४ ॥