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अ॒ग्निस्ति॒ग्मेन॑ शो॒चिषा॒ यास॒द् विश्वं॒ न्य१॒॑त्रिण॑म्। अ॒ग्निर्नो॑ वनते र॒यिम् ॥२८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agnis tigmena śociṣā yāsad viśvaṁ ny atriṇam | agnir no vanate rayim ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निः। ति॒ग्मेन॑। शो॒चिषा॑। यास॑त्। विश्व॑म्। नि। अ॒त्रिण॑म्। अ॒ग्निः। नः॒। व॒न॒ते॒। र॒यिम् ॥२८॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:16» मन्त्र:28 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:26» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:28


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! जैसे (अग्निः) अग्नि (तिग्मेन) तीव्र (शोचिषा) प्रकाश से प्राप्त हुए वस्तु को जलाता है, वैसे जो (विश्वम्) सम्पूर्ण (अत्रिणम्) शत्रु के प्रति (नियासत्) प्रयत्न करे और वैसे जो (अग्निः) अग्नि के सदृश (नः) हम लोगों के लिये (रयिम्) द्रव्य का (वनते) सेवन करता है, उसको अध्यक्ष करिये ॥२८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजा को चाहिये कि अधिकारियों के नियत करने में प्रजा की सम्मति भी ग्रहण करे, ऐसा होने पर कभी भी उपद्रव नहीं होता है ॥२८॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

शत्रु विनाश व धन प्राप्ति

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अग्निः) = वह अग्रेणी प्रभु (तिग्मेन शोचिषा) = अपनी तीव्र ज्ञानदीप्ति से सब (अत्रिणम्) = हमें खा जानेवाले काम-क्रोध-लोभ रूप शत्रुओं को (नियासत्) = [निहतु] नष्ट करें। प्रभु ने ही तो काम को भस्म करना है। [२] इन काम आदि शत्रुओं को नष्ट करके अब वे (अग्निः) = अग्रेणी प्रभु (नः) = हमारे लिये (रयिं वनते) = धनों को देते हैं । 'काम-क्रोध-लोभ' यदि हमारे 'स्वास्थ्य, शान्ति व ज्ञानदीप्ति' रूप धन को नष्ट करते हैं, तो इनका विनाश हमें पुन: 'स्वास्थ्य, शान्ति व दीप्ति' रूप धनों को प्राप्त करानेवाला होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु हमारे काम-क्रोध-लोभ रूप शत्रुओं का नाश करते हैं और 'स्वास्थ्य, शान्ति है। व दीप्ति' रूप धनों को प्राप्त कराते हैं ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राज्ञा किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! यथाऽग्निस्तिग्मेन शोचिषा प्राप्तं वस्तु वहति तथा यो विश्वमत्रिणं नि यासत्तथा च योऽग्निर्नो रयिं वनते तमध्यक्षं कुरु ॥२८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) पावकः (तिग्मेन) तीव्रेण (शोचिषा) ज्योतिषा (यासत्) प्रयतेत (विश्वम्) समग्रम् (नि) (अत्रिणम्) शत्रुम् (अग्निः) पावक इव (नः) अस्मभ्यम् (वनते) सम्भजति (रयिम्) द्रव्यम् ॥१८॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राज्ञाऽधिकारिस्थापने प्रजासम्मतिरपि ग्राह्यैवं सति कदाप्युपद्रवो न जायते ॥२८॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Agni, with the flaming light of pure refulgence, dries up and burns off all hostility of the world and brings the wealth of life for us, dedicated supplicants and celebrants.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

What should a king do is told further.

अन्वय:

O king ! as fire burns every thing that is lying near, by its sharp blaze, so appoint him as the head of the military (defense), department who casts down all wicked enemies and bestows wealth upon us.

भावार्थभाषाः - A king should take the opinion of the people also when appointing officers, by doing so there will be no occasion for disturbance or discontentment.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. राजाने अधिकारी नेमताना प्रजेची संमती घ्यावी. असे केल्याने कधी उपद्रव होत नाही. ॥ २८ ॥