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यत्र॒ क्व॑ च ते॒ मनो॒ दक्षं॑ दधस॒ उत्त॑रम्। तत्रा॒ सदः॑ कृणवसे ॥१७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yatra kva ca te mano dakṣaṁ dadhasa uttaram | tatrā sadaḥ kṛṇavase ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्र॑। क्व॑। च॒। ते॒। मनः॑। दक्ष॑म्। द॒ध॒से॒। उत्ऽत॑रम्। तत्र॑। सदः॑। कृ॒ण॒व॒से॒ ॥१७॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:16» मन्त्र:17 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:24» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:17


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को कहाँ मन स्थित करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! (यत्र) जहाँ (ते) आप का (मनः) विचारात्मक चित्त है और (उत्तरम्) पार होते हैं जिससे उस (दक्षम्) बल को (च) भी आप (दधसे) धारण करते हो (तत्र) वहाँ (सदः) स्थित होते हैं, जिसमें उसको (कृणवसे) करते हो तथा (क्व) कहाँ निवास करते हो, इस का उत्तर कहिये ॥१७॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जहाँ जगदीश्वर वा योगाभ्यास में आप लोगों का अन्तःकरण पवित्र होकर कार्य्य की सिद्धि को करता है, वहाँ ही आप लोग भी प्रवृत्ति करिये ॥१७॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

उत्तरं दक्षं+सदः

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे प्रभो ! (यत्र क्व च) = जहाँ कहीं भी (ते मन:) = आपका अनुग्रहात्मक मन होता है, अर्थात् जिस पर भी आपकी कृपा होती है, वहाँ आप (उत्तरम्) = उत्कृष्ट (दक्षम्) = बल को (दधसे) = धारण करते हैं। हम प्रभु कृपा के पात्र बनें, प्रभु हमें उत्कृष्ट बल प्राप्त करायेंगे। [२] (तत्र) = उसी व्यक्ति में आप सदा (कृणवसे) = अपनी स्थिति करते हैं, उसी को आप अपना निवास स्थान बनाते हैं। 'नायमाला बलहीनेन लभ्यः' निर्बल से वे लभ्य नहीं होते। बल प्रभु कृपा से ही प्राप्त होता है । (प्रभु) = कृपा की प्राप्ति के लिये हम अपने मन को प्रभु के प्रति दे डालें। हम प्रभु के प्रति अपने मनों को देकर ही प्रभु को अपने लिये अनुग्रहात्मक बना पाते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु के प्रति अपने मनों को देकर हम प्रभु के अनुग्रह को प्राप्त करते हैं। प्रभु हमें उत्कृष्ट बल प्राप्त कराते हैं और हमारे में प्रभु का निवास होता है।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैः कुत्र मनो धेयमित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वन् ! यत्र ते मन उत्तरं दक्षं च त्वं दधसे तत्रा सदः कृणवसे क्व वससीत्युत्तराणि वद ॥१७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्र) (क्व) कस्मिन् (च) (ते) तव (मनः) मननात्मकं चित्तम् (दक्षम्) बलम् (दधसे) (उत्तरम्) उत्तरन्ति येन तत् (तत्रा) । अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (सदः) सीदन्ति यस्मिंस्तत् (कृणवसे) करोषि ॥१७॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यत्र जगदीश्वरे योगाभ्यासे वा युष्माकमन्तःकरणं पवित्रं भूत्वा कार्य्यसिद्धिं करोति तत्रैव यूयमपि प्रवर्त्तध्वम् ॥१७॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O leading light, where, wherever in fact, is your mind, there you hold your efficiency and identity, and there indeed you create your haven and home.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

Where should men have their mind (concentrate.) is told.

अन्वय:

O highly learned person! where. ever your mind upholds exalted power, keep or engage it there. Tell me where is it?

भावार्थभाषाः - O men! your mind when engaged in the meditation upon God, the Lord of the world or in the practice of Yoga, becomes pure (or sinless) it is able to accomplish great works. Engage yourselves in doing that noble work.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! जगदीश्वर किंवा योगाभ्यास यात तुमचे अंतःकरण पवित्र बनून कार्यसिद्धी होते त्या स्थानी तुमची प्रवृत्ती ठेवा. ॥ १७ ॥