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प्र स॒म्राजे॑ बृ॒हद॑र्चा गभी॒रं ब्रह्म॑ प्रि॒यं वरु॑णाय श्रु॒ताय॑। वि यो ज॒घान॑ शमि॒तेव॒ चर्मो॑प॒स्तिरे॑ पृथि॒वीं सूर्या॑य ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra samrāje bṛhad arcā gabhīram brahma priyaṁ varuṇāya śrutāya | vi yo jaghāna śamiteva carmopastire pṛthivīṁ sūryāya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। स॒म्ऽराजे॑। बृ॒हत्। अ॒र्च॒। ग॒भी॒रम्। ब्रह्म॑। प्रि॒यम्। वरु॑णाय। श्रु॒ताय॑। वि। यः। ज॒घान॑। श॒मि॒ताऽइ॑व। चर्म॑। उ॒प॒ऽस्तिरे॑। पृ॒थि॒वीम्। सूर्या॑य ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:85» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:30» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब आठ ऋचावाले पचासीवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! (यः) जो रचनेवाले के सदृश दुष्टों का (वि, जघान) नाश करता और (सूर्य्याय) रचनेवाले के लिये (उपस्तिरे) बिछौने पर (चर्म) चमड़े और (पृथिवीम्) पृथिवी को (शमितेव) जैसे यज्ञमय व्यवहार प्राप्त होता है, वैसे आप (वरुणाय) श्रेष्ठ (श्रुताय) विशेष करके सिद्ध यशवाले तथा (सम्राजे) उत्तम प्रकार शोभित के लिये (बृहत्) बड़े (गभीरम्) थाहरहित (प्रियम्) जो प्रसन्न करता उस (ब्रह्म) धन वा अन्न का (प्र, अर्चा) सत्कार करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य यजमान के सदृश राजा को सुखी करते हैं, वे बड़े ऐश्वर्य्य को प्राप्त होते हैं ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'सम्राट् वरुण श्रुत' प्रभु

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे उपासक! तू (सम्राजे) = सम्यग् दीप्यमान, वरुणाय सब पापों के निवारक (श्रुताय) = प्रसिद्ध सर्वज्ञ प्रभु के लिये (बृहत्) = खूब ही (प्र अर्चा) = पूजा कर । उस प्रभु की पूजा के लिये (गभीरं) = इस बह्वर्थोपेत, अर्थात् अत्यन्त गम्भीर (प्रियम्) = प्रीति के जनक (ब्रह्म) = वेद-मन्त्रों से किये जानेवाले स्तोत्रों का [प्रार्च = प्रोच्चारय सा०] उच्चारण कर। [२] (यः) = जो वरुण (सूर्याय उपस्तिरे) = सूर्य किरणों के विस्तार के लिये (पृथिवीम्) = इस पृथिवी को विजघान फैलाते हैं । इस प्रकार फैलाते हैं, (इव) = जैसे कि (शमिता चर्म) = शान्तभाव से उपासना करनेवाला अपने आसन के लिये मृगचर्म को बिछाता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ – प्रभु 'सम्राट् है', वरुण है, श्रुत हैं। हम मन्त्रों द्वारा खूब ही प्रभु का अर्चन करें। प्रभु सूर्य किरणों के विस्तार के लिये इस पृथिवीरूप आसन को बिछाते हैं। पृथ्वी सूर्य किरणों से आच्छादित हो जाती है।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्य ! यः सवितेव दुष्टान् वि जघान सूर्य्यायोपस्तिरे चर्म पृथिवीं शमितेव प्राप्नोति तथा त्वं वरुणाय श्रुताय सम्राजे बृहद्गभीरं प्रियं ब्रह्म प्रार्चा ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (सम्राजे) यः सम्यग्राजते तस्मै (बृहत्) महत् (अर्चा) सत्कुरु। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (गभीरम्) अगाधम् (ब्रह्म) धनमन्नं वा (प्रियम्) यत्पृणाति (वरुणाय) श्रेष्ठाय (श्रुताय) विषिद्धकीर्तये (वि) (यः) (जघान) हन्ति (शमितेव) यथा यज्ञमयः (चर्म) (उपस्तिरे) आस्तरणे (पृथिवीम्) (सूर्य्याय) सवित्रे ॥१॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या यजमानवद्राजानं सुखयन्ति ते महदैश्वर्य्यं लभन्ते ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Offer homage and reverence of the highest and deepest order full of love to Varuna, the one sovereign ruler and lord of love and judgement over all, who hammered and shaped the earth into form and, like the host of a yajna of peace and non-violence, overspread the earth with the atmosphere as a protective and promotive cover as a shield for the sun, as protection against heat for the sake of generative power and fertility. His divine voice resounds across the universe.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

What should men do is told.

अन्वय:

O man! honor a renowned noble king who shines like the sun on account of his virtues, with offer of abundant dear wealth or food (likeable. Ed.) kills the wicked like the sun (dispelling darkness) like a man who performs peace living Yajna covers the ground with the Asana (seat) made of leather (of a dear) मृगचर्म।

भावार्थभाषाः - The men who gladden the king like the performer of the Yajnas, attain much wealth or prosperity.
टिप्पणी: It was not correct on the part of prof. Wilson and other to translate the word शमिता as immolator. It simply means the doer of a work that gives peace- the Yajna being a work of this nature.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात राजा, ईश्वर, मेघ व विद्वानांच्या गुुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जी माणसे यजमानाप्रमाणे राजाला सुखी ठेवतात. त्यांना महान ऐश्वर्याचा लाभ होतो. ॥ १ ॥