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ता हि क्ष॒त्रमवि॑ह्रुतं स॒म्यग॑सु॒र्य१॒॑माशा॑ते। अध॑ व्र॒तेव॒ मानु॑षं॒ स्व१॒॑र्ण धा॑यि दर्श॒तम् ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tā hi kṣatram avihrutaṁ samyag asuryam āśāte | adha vrateva mānuṣaṁ svar ṇa dhāyi darśatam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ता। हि। क्ष॒त्रम्। अवि॑ऽह्रुतम्। स॒म्यक्। अ॒सु॒र्य॑म्। आशा॑ते॒ इति॑। अध॑। व्र॒ताऽइ॑व। मानु॑षम्। स्वः॑। न। धा॒यि॒। द॒र्श॒तम् ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:66» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:4» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (ता) वे (हि) ही (अविह्रुतम्) नहीं कुटिल (असुर्य्यम्) विद्वानों के लिये हितकारक (सम्यक्) उत्तम प्रकार चलनेवाले (क्षत्रम्) धन वा राज्य को (आशाते) व्याप्त होते हैं (अध) इसके अनन्तर जिन्होंने हित (मानुषम्) मनुष्यसम्बन्धी (दर्शतम्) देखने योग्य (व्रतेव) कर्म्मों के सदृश और (स्वः) सुख के (न) सदृश (धायि) धारण किया ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । सब मनुष्य धर्म पथ से सुख और कर्म्म को धारण करें ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'अकुटिल-असुरविघाति' बल

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (ता) = वे दोनों मित्र और वरुण, स्नेह व निर्देषता के भाव (क्षत्रम्) = बल को सम्यक् (आशाते) = सम्यक् व्याप्त करते हैं। उस बल को व्याप्त करते हैं, जो (अविह्रुतम्) = कुटिलता से रहित है तथा अहिंस्य है, जिस बल से युक्त होकर हम औरों के साथ कुटिलता से नहीं (वरतते) = और स्वयं रोगों से हिंसित नहीं होते। तथा जो बल (असुर्यम्) = आसुर भावनाओं को विरत करनेवाला है, इस बल के होने पर आसुरभावों का जन्म नहीं होता। वीरता के साथ virtues [गुणों] का ही तो सम्बन्ध है, अवीरता ही तो evil है। [२] (अध) = अब इस क्षेत्र के धारण के उपरान्त (मानुषम्) = मनुष्य के लिये हितकर (व्रता इव) = कर्मों की तरह, (स्वः न) = सूर्य के समान (दर्शतम्) = दर्शनीय सुन्दर ज्ञान [प्रकाश] (धायि) = हमारे में धारण किया जाता है । मित्र और वरुण के बल से सम्पन्न होकर हम मानवहित कर कर्मों को ही करते हैं और देदीप्यमान ज्ञानवाले होते हैं। मानवहितकारी कर्मों को करनेवाले हम 'वैश्वानर' हैं । सूर्य समान ज्ञानवाले हम 'प्राज्ञ' होते हैं । क्षेत्र को धारण करनेवाले हम 'तैजस' बनते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- स्नेह व निर्देषता का भाव हमारे अन्दर 'अकुटिल बल, आसुरभावनाशून्य बल' प्राप्त कराते हैं। इस बल से सम्पन्न होकर हम मानवहितकारी कर्मों को व दीप्त ज्ञान को धारण करते हैं।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्याः ! ता ह्यविह्रुतमसुर्य्यं सम्यक् क्षत्रमाशाते अथ याभ्यां हितम्मानुषं दर्शतं व्रतेव स्वर्ण धायि ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ता) तौ (हि) एव (क्षत्रम्) धनं राज्यं वा (अविह्रुतम्) अकुटिलम् (सम्यक्) यत्समीचीनमञ्चति (असुर्य्यम्) असुरेभ्यो विद्वद्भ्यो हितम् (आशाते) व्याप्नुतः (अध) अथ (व्रतेव) कर्म्माणीव (मानुषम्) मनुष्याणामिदम् (स्वः) सुखम् (न) इव (धायि) ध्रियताम् (दर्शतम्) द्रष्टव्यम् ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । सर्वे मनुष्या धर्मपथा सुखं कर्म्म च धरन्तु ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - They alone successfully lead to a steady, vibrant and inviolable social order and, like committed and covenanted powers, establish a bright and blessed heaven of humanity on earth.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The same subject of duties of a man is continued.

अन्वय:

O men ! they enjoy good wealth or kingdom free from crookedness, but they are beneficial to all learned persons. They give new life to people who uphold human welfare like good actions and happiness, which is worth seeing (emulation. Ed.)

भावार्थभाषाः - All men should uphold happiness and works by the path of Dharma or righteousness.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. सर्व माणसांनी धर्ममार्गाने सुख मिळवावे व कर्म करावे. ॥ २ ॥