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मि॒त्रो अं॒होश्चि॒दादु॒रु क्षया॑य गा॒तुं व॑नते। मि॒त्रस्य॒ हि प्र॒तूर्व॑तः सुम॒तिरस्ति॑ विध॒तः ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mitro aṁhoś cid ād uru kṣayāya gātuṁ vanate | mitrasya hi pratūrvataḥ sumatir asti vidhataḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मि॒त्रः। अं॒होः। चि॒त्। आत्। उ॒रु। क्षया॑य। गा॒तुम्। व॒न॒ते॒। मि॒त्रस्य॑। हि। प्र॒ऽतूर्व॑तः। सु॒ऽम॒तिः। अस्ति॑। वि॒ध॒तः ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:65» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:3» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (मित्रः) मित्र (अंहोः) दुष्ट आचरण से (चित्) भी वियुक्त करके (आत्) अनन्तर (उरु) बहुत (क्षयाय) निवास के लिये (गातुम्) पृथिवी को (वनते) सेवन करता है वह (हि) निश्चय से (प्रतूर्वतः) शीघ्र करनेवाले (विधतः) परिचरण करते हुए (मित्रस्य) मित्र की जो (सुमतिः) श्रेष्ठ बुद्धि (अस्ति) है, उसको ग्रहण करे ॥४॥
भावार्थभाषाः - वे ही मित्र हैं, जो निष्कपटता से और शुद्ध भाव से परस्पर के जनों के साथ वर्तमान हैं ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अक्रोधेन जयेत् क्रोधम्

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (मित्रः) = यह सब के साथ स्नेह करनेवाला, मित्र व वरुण का उपासक (आत्)-मित्र वरुण की उपासना से 'उत्तम इन्द्रयों-ज्ञान व शक्ति' को प्राप्त करने के बाद [आत् = अनन्तरम्] (अंहोः चित्) = कुटिल पापी पुरुष के भी (क्षयाय) = उत्तम निवास व गति के लिये (उरु गातुम्) = विशाल मार्ग को (वनते) = सेवन करता है। विशाल हृदय को धारण करता हुआ यह 'मित्र' का आराधक कुटिल को भी भला बनाने के लिये उदारता के मार्ग का अवलम्बन करता है। [२] इस (मित्रस्य) = सर्वस्नेही पुरुष की (हि) = निश्चय से (सुमतिः अस्तिः) = सदा कल्याणीमति होती है। इस मित्र की, जो (प्रतूर्वतः) = बुरे भावों को प्रकर्षेण हिंसित कर रहा है तथा (विधतः) = प्रभु का सच्चा पूजन कर रहा है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ–'मित्र' का आराधक कुटिल के सुधार के लिये भी उदार मार्ग का अवलम्वन करता है। यह सबके लिये कल्याणीमति का धारण करता है। यही इसका सच्चा प्रभु-पूजन है ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यो मित्रोंऽहोश्चिद्वियोज्याऽऽदुरु क्षयाय गातुं वनते स हि प्रतूर्वतो विधतो मित्रस्य या सुमतिरस्ति तां गृह्णीयात् ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मित्रः) सखा (अंहोः) दुष्टाचारात् (चित्) (आत्) (उरु) बहु (क्षयाय) निवासाय (गातुम्) पृथिवीम् (वनते) सम्भजति (मित्रस्य) (हि) खलु (प्रतूर्वतः) शीघ्रं कर्त्तुः (सुमतिः) उत्तमप्रज्ञा (अस्ति) (विधतः) परिचरतः ॥४॥
भावार्थभाषाः - त एव सखायः सन्ति ये निष्कापट्येन शुद्धभावेन परस्परैः सह वर्त्तन्ते ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Mitra, friend and lover, for sure, provides a wide path away from sin for us to have a safe and spacious haven of peace on earth. The love and friendship of the Lord of instant action who protects and upholds us against sin and evil is for humanity, abundant for anyone who cares to benefit from it by prayer and effort.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The subject of teacher-pupil and preacher-audience is continued.

अन्वय:

O men ! the friend who takes us away from sin and then gives a good place on earth for dwelling, should take the noble intellect or wisdom of the friend who is prompt and who renders good service to others.

भावार्थभाषाः - Those are only true friends who deal with each other without deceit and with pure and honest motives.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे निष्कपटीपणाने व शुद्ध भावनेने परस्परांबरोबर वागतात तेच मित्र असतात. ॥ ४ ॥