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उ॒त घा॒ नेमो॒ अस्तु॑तः॒ पुमाँ॒ इति॑ ब्रुवे प॒णिः। स वैर॑देय॒ इत्स॒मः ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uta ghā nemo astutaḥ pumām̐ iti bruve paṇiḥ | sa vairadeya it samaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒त। घ॒। नेमः॑। अस्तु॑तः। पुमा॑न्। इति॑। ब्रु॒वे॒। प॒णिः। सः। वैर॑ऽदेये। इत्। स॒मः ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:61» मन्त्र:8 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:27» मन्त्र:3 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (अस्तुतः) नहीं प्रशंसा किया गया (उत) और (नेमः) आधे का अधिकारी (घा) ही (वैरदेये) वैर देने योग्य जिससे उसमें (पुमान्) पुरुष और जो (पणिः) प्रशंसित वर्त्तमान है (सः, इत्) वही (समः) तुल्य है (इति) इस प्रकार से मैं (ब्रुवे) कहता हूँ ॥८॥
भावार्थभाषाः - जो आलस्ययुक्त जन श्रेष्ठ कर्म्मों में नहीं प्रवृत्त होता है और दूसरा विद्वान् पुरुष सत्य और असत्य को जानकर सत्य का आचरण नहीं करता है, वे दोनों तुल्य अधर्मात्मा हैं, यह जानना चाहिये ॥८॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

पुरुष का लक्षण [कौन पुरुष है]

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (उत घा) = और फिर जो (नेम:) = अपनी पत्नी का अर्धांग बनता है, पत्नी को ही अर्धांगिनी न समझता हुआ स्वयं भी अर्धांग बनने का प्रयत्न करता है, अर्थात् पतिव्रता के यशोगान को ही सदा न करता हुआ स्वयं भी एक पत्नीव्रत बनने का प्रयत्न करता है। अस्तुतः = सदा अपनी ही स्तुति [प्रशंसा] नहीं करता रहता (पणि:) = सदा प्रभु-स्तवन करनेवाला होता है। यह ही 'पुमान्' इति ='पुरुष' इस नाम से (ब्रुवे) = कहा जाता है, 'पुमान्', अर्थात् अपने जीवन को पवित्र करनेवाला । [२] (सः) = वह (वैरदेये) = वीरों से किये जानेवाले धन दान के कर्म में (इत्) = निश्चय से (समः) = समवृत्ति का होता है। पक्षपात से कभी इस दानक्रिया को नहीं करता। सबका भला चाहता हुआ यज्ञशील होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - पुरुष वही है जो [१] पत्नी का अर्धांग बनता है, [२] घमण्ड नहीं करता रहता, [३] प्रभु स्तवन की वृत्ति रखता है तथा [४] दान कर्म में समवृत्ति को अपनाता है, पक्षपात नहीं करता ।
अन्य संदर्भ: सूचना - ऐसा जीवन प्राणसाधना से ही तो बनेगा इसीलिए मरुतों के प्रकरण में यह सब उल्लेख हुआ है।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! योऽस्तुत उत नेमो घा वैरदेये पुमान् यश्च पणिर्वर्त्तते स इत्सम इत्यहं ब्रुवे ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) अपि (घा) एव। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (नेमः) अर्द्धाधिकारी (अस्तुतः) अप्रशंसितः (पुमान्) पुरुषः (इति) अनेन प्रकारेण (ब्रुवे) (पणिः) प्रशंसितः (सः) (वैरदेये) वैरं देयं येन तस्मिन् (इत्) एव (समः) तुल्यः ॥८॥
भावार्थभाषाः - योऽलसः सत्कर्मसु न प्रवर्त्तते द्वितीयो विद्वान् सत्याऽसत्यं विज्ञाय सत्यं नाचरति तौ द्वौ तुल्यावधर्मात्मानौ वर्त्तेते इति बोध्यम् ॥८॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - And I say: Whether the man is worthy of praise or unworthy of praise, but being the husband he is half of the woman’s life (as the woman is his better half), and has equal rights and responsibilities in the family affairs and equal conjugal rights.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

Something about the learned persons is told further.

अन्वय:

O man ! he who is not praised by good men, is equally imperfect having acquired only half knowledge and engaged in the conduct full of malice; and another who is admired by learned persons but does not perform truthful actions are equal. This is what all of you should know well.

भावार्थभाषाः - He who being lazy does not engage himself in doing good deeds and another who is learned and knows truth and untruth but does not perform truthful act are equally unrighteous.
टिप्पणी: Prof. Maxmullar's note on this mantra is 'This verse is very obscene'. (Vedic Hymn Vol. 1 p. 360). (it rather looks strange. Ed.).
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो आळशी असतो व श्रेष्ठ कर्मात प्रवृत्त होत नाही. दुसरा विद्वान असून सत्य व असत्य जाणून आचरण करत नाही. ते दोघेही सारखेच अधार्मिक आहेत, हे जाणले पाहिजे. ॥ ८ ॥