विश्वो॑ दे॒वस्य॑ ने॒तुर्मर्तो॑ वुरीत स॒ख्यम्। विश्वो॑ रा॒य इ॑षुध्यति द्यु॒म्नं वृ॑णीत पु॒ष्यसे॑ ॥१॥
viśvo devasya netur marto vurīta sakhyam | viśvo rāya iṣudhyati dyumnaṁ vṛṇīta puṣyase ||
विश्वः॑। दे॒वस्य॑। ने॒तुः। मर्तः॑। वु॒री॒त॒। स॒ख्यम्। विश्वः॑। रा॒ये। इ॒षु॒ध्य॒ति। द्यु॒म्नम्। वृ॒णी॒त॒। पु॒ष्यसे॑ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पाँच ऋचावाले पचासवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों के साथ मित्रता से विद्या और धन को प्राप्त होकर यज्ञ बढ़ावें, इस विषय को कहते हैं ॥
हरिशरण सिद्धान्तालंकार
प्रभु की मित्रता का वरण
स्वामी दयानन्द सरस्वती
मनुष्यैर्विद्वन्मित्रत्वेन विद्याधने प्राप्य यशः प्रथितव्यमित्याह ॥
विश्वो मर्त्तो नेतुर्देवस्य सख्यं वुरीत विश्वो राय इषुध्यति येन त्वं पुष्यसे तत् द्युम्नं भवान् वृणीत ॥१॥
डॉ. तुलसी राम
आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड
Men should acquire knowledge and wealth by friendship with the enlightened persons and spread good reputation.
Let all men accept the friendship with the enlightened leaders. Every one should take up arms to preserve or defend his riches, by which you are nourished. May you earn good reputation.
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर या सूक्ताच्या अर्थाची संगती जाणावी.
