वांछित मन्त्र चुनें

यदी॑मिन्द्र श्र॒वाय्य॒मिषं॑ शविष्ठ दधि॒षे। प॒प्र॒थे दी॑र्घ॒श्रुत्त॑मं॒ हिर॑ण्यवर्ण दु॒ष्टर॑म् ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad īm indra śravāyyam iṣaṁ śaviṣṭha dadhiṣe | paprathe dīrghaśruttamaṁ hiraṇyavarṇa duṣṭaram ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। ई॒म्। इ॒न्द्र॒। श्र॒वाय्य॑म्। इष॑म्। श॒वि॒ष्ठ॒। द॒धि॒षे। प॒प्र॒थे। दी॒र्घ॒श्रुत्ऽत॑मम्। हिर॑ण्यऽवर्ण। दु॒स्तर॑म् ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:38» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:9» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:3» मन्त्र:2


0 बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वद्विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शविष्ठ) अतिबलयुक्त और (हिरण्यवर्ण) सुवर्ण को स्वीकार करनेवाले (इन्द्र) दुःख के नाश करनेवाले ! (यत्) जो (श्रवाय्यम्) सुनने के योग्य और (दुष्टरम्) दुःख से तरने योग्य (इषम्) अन्न आदि को (पप्रथे) प्रकट करता है उस (ईम्) प्राप्त होने योग्य और दुःख से तरने योग्य (दीर्घश्रुत्तमम्) अतिकाल से अधिकतर सुननेवाले को आप (दधिषे) धारण करते हो ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! जो पूर्णविद्या से युक्त, धन-धान्य, पशु और प्रजाओं का बढ़ाने और ब्रह्मचर्य्य से बड़ा पराक्रमवाला है, उसी को राजकर्म्मचारी कीजिये ॥२॥
0 बार पढ़ा गया

हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'श्रवाय्य दीर्घश्रुत्तम- दुष्टर' अन्न

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् ! (शविष्ठ) = सर्वाधिक बलशालिन् प्रभो ! (यत्) = जो (ईम्) = निश्चय से (श्रवाय्यम्) = श्रवणीय अथवा ज्ञानवर्धन के लिये उत्तम (इषम्) = अन्न है, उसे आप हमारे लिये (दधिषे) = धारण करते हैं । [२] हे (हिरण्यवर्ण) = स्वर्ण के समान देदीप्यमान-ज्योतिर्मय रूपवाले प्रभो ! वह (दीर्घश्रुत्तम्) = हमें अत्यधिक दीर्घश्रुत बनानेवाला, (दुष्टरम्) = शत्रुओं से अभिभूत न करने योग्य अन्न (पप्रथे) = हमारी शक्तियों के विस्तार का कारण बनता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु कृपा से हमें वह अन्न प्राप्त हो जो कि 'श्रवाय्य दीर्घश्रुत्तम व दुष्टर' है इस सात्त्विक अन्न के सेवन से हमारे ज्ञान में वृद्धि हो और हमारी शक्तियों का विस्तार हो ।
0 बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

हे शविष्ठ हिरण्यवर्णेन्द्र ! यद्यः श्रवाय्यं दुष्टरमिषं पप्रथे तमीं दुष्टरं दीर्घश्रुत्तमं त्वं दधिषे ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यः (ईम्) प्राप्तव्यम् (इन्द्र) दुःखविदारक (श्रवाय्यम्) श्रोतुं योग्यम् (इषम्) अन्नादिकम् (शविष्ठ) अतिबल[युक्त] (दधिषे) (पप्रथे) प्रथते (दीर्घश्रुत्तमम्) यो दीर्घेण कालेन शृणोति सोऽतिशयितस्तम् (हिरण्यवर्ण) यो हिरण्यं वृणोति तत्सम्बुद्धौ (दुष्टरम्) दुःखेन तरितुं योग्यम् ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! यः पूर्णविद्यो धनधान्यपशुप्रजानां वर्धको ब्रह्मचर्येण महावीर्य्योऽस्ति तमेव राजकर्मचारिणं कुरु ॥२॥
0 बार पढ़ा गया

डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, ruler of golden majesty, lord most potent, destroyer of suffering, whatever food, energy and light of knowledge, great and renowned, you bear and bestow upon us you increase and extend, and it resounds far and wide as the highest of fame most unchallengeable by mortal man.
0 बार पढ़ा गया

आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The attributes of a learned person are told.

अन्वय:

O most mighty king ! you choose splendor and light of knowledge, and destroy miseries. You should uphold or appoint only such a person as an officer of the State, who keeps up admirable (nice) food grains, and is not surpassed by others. He has observed Brahmacharya for a long period and, therefore, is the best among those who have heard or studied the shastras.

भावार्थभाषाः - O king, appoint only him as an officer or a servant of the State, who is easily approachable by the people and is possessor of perfect knowledge. He increases wealth, and is a man of great vitality on account of the observance of Brahmacharya.
0 बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - भावार्थर् - हे राजा! जो पूर्ण विद्येने युक्त धन धान्य पशू व प्रजा वाढविणारा व ब्रह्मचर्याने अत्यंत पराक्रमी असलेला असा माणूस असेल तर त्यालाच राज्यकर्मचारी नेमावे. ॥ २ ॥