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अ॒ग्निर्दे॒वेषु॑ राजत्य॒ग्निर्मर्ते॑ष्वावि॒शन्। अ॒ग्निर्नो॑ हव्य॒वाह॑नो॒ऽग्निं धी॒भिः स॑पर्यत ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agnir deveṣu rājaty agnir marteṣv āviśan | agnir no havyavāhano gniṁ dhībhiḥ saparyata ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निः। दे॒वेषु॑। रा॒ज॒ति॒। अ॒ग्निः। मर्ते॑षु। आ॒ऽवि॒शन्। अ॒ग्निः। नः॒। ह॒व्य॒ऽवाह॑नः। अ॒ग्निम्। धी॒भिः। स॒प॒र्य॒त॒ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:25» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:17» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (अग्निः) अग्नि के सदृश वर्त्तमान तेजस्वी विद्वान् (देवेषु) विद्वानों वा पृथिवी आदिकों में और जो (अग्निः) बिजुलीरूप अग्नि (मर्त्तेषु) मरणधर्म्मवाले मनुष्य आदिकों में और जो (हव्यवाहनः) हवन करने योग्य पदार्थों को धारण करनेवाला (अग्निः) सूर्य्यादिरूप अग्नि (नः) हम लोग में (आविशन्) प्रविष्ट हुआ (राजति) प्रकाशित होता है, उस (अग्निम्) अग्नि को (धीभिः) बुद्धियों से आप लोग (सपर्य्यत) सेवो अर्थात् कार्य्य में लाओ ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वानो ! जो अनेक प्रकार का अग्नि आप लोगों से जाना जाये अर्थात् अनेक प्रकार के अग्नि का आप लोगों को परिज्ञान हो तो क्या-क्या सुख न पाया जाये ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

हव्यवाहन प्रभु का 'धी' द्वारा उपासन

पदार्थान्वयभाषाः - १. (अग्निः) = यह अग्रणी प्रभु ही (देवेषु) = सूर्य चन्द्र तारे आदि सब देवों में (राजति) = चमक रहा है। उसी की दीप्ति से सब देव दीप्त हो रहे हैं। 'तस्य भासा सर्वमिदं विभाति'। (अग्निः) = वह अग्रणी प्रभु ही (मर्तेषु) = सब मरणधर्मा प्राणियों में भी (आविशन्) = प्रविष्ट हो रहे हैं। इन मनुष्यों में तो बल, ज्ञान व धन है, वह सब उस प्रभु के कारण ही है 'तेजस्तेजस्विनामहम्' 'बुद्धिबुद्धिमतामस्मि' 'अहं धनानि संजयामि शाश्वत: ' । २. (अग्निः) = वे अग्रणी प्रभु ही (वः) = हमारे लिए (हव्यवाहनः) = सब हव्य पदार्थों के प्राप्त करानेवाले हैं। (अग्निम्) = उस अग्रणी प्रभु को (धीभिः) = ज्ञान की वाणियों द्वारा स्तुति करते हुए सपर्यत पूजो जितना जितना हम ज्ञान का वर्धन करते हैं व बुद्धि को सूक्ष्म बनाते हैं उतना उतना ही प्रभु के समीप होते चलते हैं। इसी प्रकार हम प्रभु का सच्चा पूजन कर पाते हैं। ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ– सर्वत्र देवों में मनुष्यों में प्रभु का ही प्रकाश है। प्रभु ही सब हव्य पदार्थों को प्राप्त कराते हैं। ज्ञान के द्वारा हम प्रभु का उपासन करें।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! योऽग्निर्देवेषु योऽग्निर्मर्त्तेषु यो हव्यवाहनोऽग्निर्न आविशन् राजति तमग्निं धीभिर्यूयं सपर्य्यत ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) पावक इव वर्त्तमानो विद्वान् (देवेषु) विद्वत्सु पृथिव्यादिषु वा (राजति) प्रकाशते (अग्निः) विद्युत् (मर्त्तेषु) मरणधर्मेषु मनुष्यादिषु (आविशन्) आविष्टः सन् (अग्निः) सूर्य्यादिरूपः (नः) अस्मान् (हव्यवाहनः) यो हव्यानि वहति सः (अग्निम्) पावकम् (धीभिः) प्रज्ञाभिः (सपर्य्यत) सेवध्वम् ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वांसो ! यद्यनेकविधोऽग्निर्युष्माभिर्विज्ञायेत तर्हि किं किं सुखं न लभ्येत ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Agni, life of life, light of existence, revealing intelligence, natural energy, leading light, pervades, energises, inspires, shines, illuminates and enlightens as it is present in divinities such as earth, and nobilities such as scholars and sages, and vibrates in all mortals.$O scholars and sages, serve, pursue, and develop Agni with the best of your intelligence and understanding.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The same subject of duties of the Agni are stated.

अन्वय:

O men ! know the various kinds of Agni and serve them with good intellect. There is an Agni (highly learned person) purifier like the fire who shines among the persons, of his class. There is another Agni (in the form of energy) which shines among the mortals when used methodically or scientifically. There are third and fourth categories of Agni in the form of the fire and the sun which carries the oblations to distant places.

भावार्थभाषाः - O learned persons ! if you know well Agni of various kinds as hinted at the mantra, what happiness is there you may not obtain ? (You will get it all).
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे विद्वानांनो ! जर तुम्हाला अनेक प्रकारच्या अग्नीचे ज्ञान झाले तर कोणते सुख मिळणार नाहीr? ॥ ४ ॥