यम॑ग्ने वाजसातम॒ त्वं चि॒न्मन्य॑से र॒यिम्। तं नो॑ गी॒र्भिः श्र॒वाय्यं॑ देव॒त्रा प॑नया॒ युज॑म् ॥१॥
yam agne vājasātama tvaṁ cin manyase rayim | taṁ no gīrbhiḥ śravāyyaṁ devatrā panayā yujam ||
यम्। अ॒ग्ने॒। वा॒ज॒ऽसा॒त॒म॒। त्वम्। चि॒त्। मन्य॑से। र॒यिम्। तम्। नः॒। गीः॒ऽभिः। श्र॒वाय्य॑म्। दे॒व॒ऽत्रा। प॒न॒य॒। युज॑म् ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब चार ऋचावाले बीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अग्निपदवाच्य विद्वान् के गुणों का वर्णन करते हैं ॥
हरिशरण सिद्धान्तालंकार
यशस्वी दिव्य ऐश्वर्य
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथाग्निपदवाच्यविद्वद्विषयमाह ॥
हे वाजसातमाग्ने ! त्वं गीर्भिर्यं देवत्रा श्रवाय्यं युजं रयिं स्वार्थं मन्यसे तं चिन्नः पनया ॥१॥
डॉ. तुलसी राम
आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड
The duties of the enlightened persons, are mentioned with the word 'Agni'.
O distributor of knowledge and other things among others! O highly learned person! whichever wealth you consider good for yourself, which (wealth) is to be admired by the truthful learned persons, which (wealth) is useful to hold (being noble), convey or disseminate that to others also (for their use) through your dealings and good speeches.
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात अग्नीचे गुणवर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
