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आ य॒ज्ञैर्दे॑व॒ मर्त्य॑ इ॒त्था तव्यां॑समू॒तये॑। अ॒ग्निं कृ॒ते स्व॑ध्व॒रे पू॒रुरी॑ळी॒ताव॑से ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā yajñair deva martya itthā tavyāṁsam ūtaye | agniṁ kṛte svadhvare pūrur īḻītāvase ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ॒। य॒ज्ञैः। दे॒व॒। मर्त्यः॑। इ॒त्था। तव्यां॑सम्। ऊ॒तये॑। अ॒ग्निम्। कृ॒ते। सु॒ऽअ॒ध्व॒रे। पू॒रुः। ई॒ळी॒त॒। अव॑से ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:17» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:9» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पाँच ऋचावाले सत्रहवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अग्न्यादि विद्याविषय को कहते हैं ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देव) विद्वन् ! जैसे (पूरुः) मननशील (मर्त्यः) मनुष्य (कृते) किये हुए (स्वध्वरे) शोभन अहिंसामय यज्ञ में (यज्ञैः) विद्वानों के सत्कारादिक व्यवहारों से (अवसे) विद्या आदि श्रेष्ठ गुणों में प्रवेश होने के लिये (तव्यांसम्) अत्यन्त वृद्ध बड़े तेजयुक्त (अग्निम्) अग्नि की (ईळीत) प्रशंसा करता है (इत्था) इस कारण से (ऊतये) रक्षा आदि के लिये (आ) प्रयोग अर्थात् विशेष उद्योग करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वानों के सङ्ग में प्रीति करनेवाले मनुष्य अग्नि आदि पदार्थों की विद्या को प्राप्त हो कर श्रेष्ठ कर्म को करते हैं, वे सब प्रकार से रक्षित होते हैं ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'यज्ञों के द्वारा उपास्य' यज्ञरक्षक प्रभु

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (देव) = प्रकाशमय प्रभो ! (मर्त्यः) = मनुष्य (इत्था) = सचमुच (यज्ञैः) = यज्ञों के द्वारा (तव्यांसम्) = सब गुणों के दृष्टिकोण से प्रवृद्ध गुणों की चरमसीमा के रूप में आपको (ऊतये) = रक्षण के लिये [आ ह्वयति] = पुकारता है। वस्तुतः आपके रक्षण से ही उसके यज्ञपूर्ण होते हैं । [२] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (पूरु:) = पालनात्मक व पूरणात्मक कर्मों में तत्पर मनुष्य [पृ पालनपूरणयोः] (स्वध्वरे) = उत्तम यज्ञों के (कृते) = करने पर (अवसे) = रक्षण के लिये (ईडीत) = आपका पूजन करता है। यह आपका पूजन ही उसे बल देता है, जिससे कि वह यज्ञों को कर पाता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- यज्ञों के द्वारा प्रभु का उपासन होता है। यज्ञों के रक्षण के लिये यह 'पूरु' प्रभु को पुकारता है।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाग्न्यादिविद्याविषयमाह ॥

अन्वय:

हे देव ! यथा पूरुर्मर्त्यः कृते स्वध्वरे यज्ञैरवसे तव्यांसमग्निमीळीतेत्थोतय आ प्रयुङ्क्ष्व ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) (यज्ञैः) विद्वत्सत्काराद्यैर्व्यवहारैः (देव) विद्वन् (मर्त्यः) मनुष्यः (इत्था) अस्माद्धेतोः (तव्यांसम्) अतिशयेन वृद्धम् (ऊतये) रक्षणाद्याय (अग्निम्) पावकम् (कृते) (स्वध्वरे) शोभनेऽहिंसामये (पूरुः) मननशीलो मनुष्यः (ईळीत) स्तौति (अवसे) विद्यादिसद्गुणप्रवेशाय ॥१॥
भावार्थभाषाः - ये विद्वत्सङ्गरुचयो मनुष्या अग्न्यादिपदार्थविद्यां प्राप्य सत्क्रियां कुर्वन्ति ते सर्वतो रक्षिता भवन्ति ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Come Agni, generous self-refulgent life of the world, the entire humanity thus, having organised holy projects of peace and non-violence, invokes and invites you, potent power, with yajnas for the sake of protection and advancement in knowledge, power and achievement.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The science of fire and other elements is told.

अन्वय:

O learned person ! a thoughtful man praises (takes maximum use of Ed.) great fire (energy) in a good non-violent noble act with dealings of honor, accorded to the enlightened and good men. He gives away charity for imparting knowledge and other virtues, and uses it for protection, and progress etc.

भावार्थभाषाः - The persons who take interest in the association of the scholars and are engaged in doing good deeds, acquire the knowledge of fire and other elements, and they are protected from all sides.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जे विद्वानांबरोबर प्रीती करून अग्नी इत्यादी पदार्थांची विद्या प्राप्त करून श्रेष्ठ कर्म करतात. ते सर्व प्रकारे रक्षित असतात. ॥ १ ॥