आ य॒ज्ञैर्दे॑व॒ मर्त्य॑ इ॒त्था तव्यां॑समू॒तये॑। अ॒ग्निं कृ॒ते स्व॑ध्व॒रे पू॒रुरी॑ळी॒ताव॑से ॥१॥
ā yajñair deva martya itthā tavyāṁsam ūtaye | agniṁ kṛte svadhvare pūrur īḻītāvase ||
आ॒। य॒ज्ञैः। दे॒व॒। मर्त्यः॑। इ॒त्था। तव्यां॑सम्। ऊ॒तये॑। अ॒ग्निम्। कृ॒ते। सु॒ऽअ॒ध्व॒रे। पू॒रुः। ई॒ळी॒त॒। अव॑से ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पाँच ऋचावाले सत्रहवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अग्न्यादि विद्याविषय को कहते हैं ॥१॥
हरिशरण सिद्धान्तालंकार
'यज्ञों के द्वारा उपास्य' यज्ञरक्षक प्रभु
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथाग्न्यादिविद्याविषयमाह ॥
हे देव ! यथा पूरुर्मर्त्यः कृते स्वध्वरे यज्ञैरवसे तव्यांसमग्निमीळीतेत्थोतय आ प्रयुङ्क्ष्व ॥१॥
डॉ. तुलसी राम
आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड
The science of fire and other elements is told.
O learned person ! a thoughtful man praises (takes maximum use of Ed.) great fire (energy) in a good non-violent noble act with dealings of honor, accorded to the enlightened and good men. He gives away charity for imparting knowledge and other virtues, and uses it for protection, and progress etc.
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
