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अ॒ग्निं घृ॒तेन॑ वावृधुः॒ स्तोमे॑भिर्वि॒श्वच॑र्षणिम्। स्वा॒धीभि॑र्वच॒स्युभिः॑ ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agniṁ ghṛtena vāvṛdhuḥ stomebhir viśvacarṣaṇim | svādhībhir vacasyubhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निम्। घृ॒तेन॑। व॒वृ॒धुः॒। स्तोमे॑भिः। वि॒श्वऽच॑र्षणिम्। सु॒ऽआ॒धीभिः॑। व॒च॒स्युऽभिः॑ ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:14» मन्त्र:6 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:6» मन्त्र:6 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर अग्निविषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (स्तोमेभिः) प्रशंसित कर्मों और (घृतेन) घृत से (विश्वचर्षणिम्) संसार के प्रकाश करनेवाले (अग्निम्) अग्नि की (वावृधुः) वृद्धि करावें उन (वचस्युभिः) अपने वचन की इच्छा करनेवाले (स्वाधीभिः) उत्तम प्रकार ध्यान से युक्त जनों के साथ सब मनुष्य अग्नि आदि पदार्थों की विद्या को ग्रहण करें ॥६॥
भावार्थभाषाः - जैसे ईंधन आदि से अग्नि बढ़ता है, वैसे ही सत्सङ्ग से विज्ञान बढ़ता है ॥६॥ इस सूक्त में अग्नि के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह चतुर्दश सूक्त और पञ्चम मण्डल में प्रथम अनुवाक और छठा वर्ग समाप्त हुआ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

स्तोमेभिः - घृतेन

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अग्निम्) = उस (अग्निवत्) = प्रकाशमान प्रभु को (घृतेन) = ज्ञानदीप्ति के द्वारा (वावृधुः) = अपने अन्दर बढ़ाते हैं। जितना जितना ज्ञान को हम प्राप्त करते हैं, उतना-उतना प्रभु के समीप होते हैं। (विश्वचर्षणिम्) = उस सर्वद्रष्टा परमात्मा को (स्तोमेभिः) = स्तुतियों के द्वारा अपने में बढ़ाते हैं। प्रभु स्तवन करते हुए हम प्रभु से रक्षणीय होते हैं । [२] (स्वाधीभिः) = [शोभनध्यानैः] उत्तम ध्यानशील पुरुषों से तथा (वचस्युभिः) = ज्ञान की वाणियों की कामनावाले पुरुषों से वे प्रभु अपने अन्दर स्थापित किये जाते हैं। ध्यानशील पुरुष स्तवनों के द्वारा तथा वचस्यु पुरुष ज्ञानदीप्ति के द्वारा प्रभु को अपने अन्दर धारण करते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम ध्यानशील बनकर स्तवनों के द्वारा प्रभु का अपने अन्दर वर्धन करें। तथा ज्ञान की वाणियों की कामनावाले होकर ज्ञानदीप्ति से प्रभु को अपने में स्थापित करें। । इस प्रकार स्तोम व घृत द्वारा प्रभु को अपने अन्दर धारण करनेवाला यह व्यक्ति 'धरुण' होता है, प्रभु धारण से ही अंग-प्रत्यंगों में रसवाला होता हुआ 'आंगिरस' होता है । यह 'धरुण आंगिरस' प्रभु का उपासन करता हुआ कहता है -
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरग्निविषयमाह ॥

अन्वय:

ये स्तोमेभिर्घृतेन विश्वचर्षणिमग्निं वावृधुस्तैर्वचस्युभिः स्वाधीभिर्जनैः सह जना अग्न्यादिविद्यां गृह्णीयुः ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निम्) (घृतेन) आज्येन (वावृधुः) वर्धयेयुः (स्तोमेभिः) प्रशंसितैः कर्मभिः (विश्वचर्षणिम्) विश्वप्रकाशकम् (स्वाधीभिः) सुष्ठुध्यानयुक्तैः (वचस्युभिः) आत्मनो वचनमिच्छुभिः ॥६॥
भावार्थभाषाः - यथेन्धनादिनाग्निर्वर्धते तथैव सत्सङ्गेन विज्ञानं वर्धत इति ॥६॥ अत्राग्निगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति चतुर्दशं सूक्तं पञ्चमे मण्डले प्रथमोऽनुवाकः षष्ठो वर्गश्च समाप्तः ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The devotees light, raise and exalt Agni, light of life, ever wakeful watcher of the world, with songs of adoration, deeply meditative and highly eloquent, created by realised souls with words of Divinity in the state of samadhi.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The illustration of Agni is told.

अन्वय:

With the help of those highly learned men who desire to use always good words, and who are endowed with meditation, who augment illuminator fire with ghee and praises, would acquire the knowledge of fire and other objects.

भावार्थभाषाः - As fire grows with fuel etc. likewise true knowledge increases by the association with and in company of the enlightened persons.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसा इंधनाने अग्नी वाढतो तसे सत्संगाने विज्ञान वाढते. ॥ ६ ॥