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न यस्य॒ सातु॒र्जनि॑तो॒रवा॑रि॒ न मा॒तरा॑पि॒तरा॒ नू चि॑दि॒ष्टौ। अधा॑ मि॒त्रो न सुधि॑तः पाव॒को॒३॒॑ग्निर्दी॑दाय॒ मानु॑षीषु वि॒क्षु ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na yasya sātur janitor avāri na mātarāpitarā nū cid iṣṭau | adhā mitro na sudhitaḥ pāvako gnir dīdāya mānuṣīṣu vikṣu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न। यस्य॑। सातुः॑। जनि॑तोः। अवा॑रि। न। मा॒तरा॑पि॒तरा॑। नु। चि॒त्। इ॒ष्टौ। अध॑। मि॒त्रः। न। सुऽधि॑तः। पा॒व॒कः। अ॒ग्निः। दी॒दा॒य॒। मानु॑षीषु। वि॒क्षु॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:6» मन्त्र:7 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:5» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ईश्वरभाव में माता पिता के सेवाधर्म को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यस्य) जिस (सातुः) सत्य और असत्य के विभाग करनेवाले के (जनितोः) माता और पिता का प्रिय (न) नहीं (अवारि) स्वीकार किया जाता है और (चित्) जिसके (मातारापितरा) माता और पिता (इष्टौ) पूजा करने योग्य (न) नहीं स्वीकार किये जाते हैं, वह दुःखी होता (अधा) इसके अनन्तर जिसके माता और पिता सत्कृत होवें (सुधितः) वह उत्तम प्रकार हितकारी (मित्रः) मित्र के (न) और (अग्निः) अग्नि के सदृश (पावकः) पवित्र (मानुषीषु) मनुष्य संबन्धिनी (विक्षु) प्रजाओं में (नु) शीघ्र (दीदाय) प्रकाशित होता है ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जिस पुत्र के विद्यमान रहने पर माता और पिता को दुःख होता और सत्कार नहीं होता है, वह भाग्यहीन निरन्तर पीड़ित होता है और जिस पुत्र की उत्तम सेवा से माता पिता प्रसन्न होते हैं, उसकी प्रजाओं में प्रशंसा और उसको सुख होता है ॥७॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अविहत शक्तिवाले प्रभु

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यस्य) = जिस (जनितो:) = सर्वोत्पादक उस प्रभु का (सातुः) = दान (न अवारि) = रोका नहीं जा सकता, (अग्नि:) = अग्रणी प्रभु (मानुषीषु विक्षु) = मानव प्रजाओं में (दीदाय) = दीप्त होते हैं । (नु चित्) = शीघ्र ही (इष्टौ) = [इष प्रेरणे] उस प्रभु के प्रेरण में चलते हुए (मातरा पितरा) = द्यावापृथिवी न [अवारि] किसी से रोके नहीं जा सकते । प्रभु की प्रेरणा में चलते हुए इन द्यावापृथिवी की गति को कोई विहत नहीं कर पाता। [२] (अधा) = अब यह अनिवारित शक्तिवाला प्रभु (मित्रः न) = सबके हित चाहनेवाले के समान (सुधित:) = सब में उत्तमता से स्थापित होता है और (पावकः) = सबको पवित्र करनेवाला है। मित्र का सर्वमहान् कार्य यही है कि वह अपने साथी के जीवन को पवित्र बनाये।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु की शक्ति किसी से विहत नहीं की जाती । वे प्रभु हमारे सच्चे मित्र व हमारे जीवन को पवित्र करनेवाले हैं।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरभावे मातापित्रोः सेवाधर्ममाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यस्य सातुर्जनितोः प्रियं नावारि यस्य चिन्मातरापितरेष्टौ नावारि। स दुःख्यधा यस्य सत्कृतौ भवेतां सुधितो मित्रो नाग्निरिव पावको मानुषीषु विक्षु नु दीदाय ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (न) (यस्य) (सातुः) सत्याऽसत्ययोर्विभाजकस्य (जनितोः) जनकयोः (अवारि) व्रियेत (न) (मातरापितरा) जनकजनन्यौ (नु) सद्यः (चित्) अपि (इष्टौ) पूजनीयौ (अधा) अथ। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (मित्रः) सखा (न) इव (सुधितः) सुष्ठु हितो हितकारी (पावकः) पवित्रः (अग्निः) वह्निरिव (दीदाय) दीप्यते (मानुषीषु) मनुष्यसम्बन्धिनीषु (विक्षु) प्रजासु ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यस्मिन्विद्यमाने पुत्रे मातापित्रोर्दुःखं जायते सत्कारो न भवति स भाग्यहीनः सततं पीडितो भवति यस्य च सुसेवया प्रीतौ भवतस्तस्य प्रजासु प्रशंसा सततं सुखञ्च जायते ॥७॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Agni is the generous giver whose gifts cannot be denied or hidden as the gifts of father and mother, too, toward fulfilment of life’s desire cannot be denied since Agni as a friend, blazing with light and glowing with generosity, blissful and sanctifying, shines among the people over everything that concerns humanity.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The duty of serving the parents is stressed.

अन्वय:

O men ! the person who is able to distinguish between truth and untruth and whose parents are not happy and honored, he lands in miseries. But that son shines among men like a benevolent friend and like the purifying fire, whose parents are happy and respected.

भावार्थभाषाः - That son is indeed unfortunate and miserable in whose life the parents suffer and are dishonored. The son who renders good service to the parents and makes them happy, gets good reputation among the people and enjoys happiness.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनो! ज्या पुत्रामुळे माता व पिता यांना दुःख होते व त्यांचा सत्कार होत नाही, तो दुर्दैवी असतो व सतत दुःखी होतो व ज्या पुत्राच्या सेवेने माता व पिता प्रसन्न होतात त्याची लोकांमध्ये प्रशंसा होते, त्याला सुख मिळते. ॥ ७ ॥