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नि॒र्यु॒वा॒णो अश॑स्तीर्नि॒युत्वाँ॒ इन्द्र॑सारथिः। वाय॒वा च॒न्द्रेण॒ रथे॑न या॒हि सु॒तस्य॑ पी॒तये॑ ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

niryuvāṇo aśastīr niyutvām̐ indrasārathiḥ | vāyav ā candreṇa rathena yāhi sutasya pītaye ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

निः॒ऽयु॒वा॒नः। अश॑स्तीः। नि॒युत्वा॑न्। इन्द्र॑ऽसारथिः। वायो॒ इति॑। आ। च॒न्द्रेण॑। रथे॑न। या॒हि। सु॒तस्य॑। पी॒तये॑ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:48» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:24» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:5» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वायो) वायु के सदृश गुणों से विशिष्ट राजन् ! आप (नियुत्वान्) नियमयुक्त गमनवाले वायु के और (इन्द्रसारथिः) बिजुली सूर्य्य वा अग्नि को नियम से चलानेवाले के सदृश (चन्द्रेण) आनन्द देनेवाले सुवर्ण आदि से जड़े हुए (रथेन) वाहन से (सुतस्य) उत्पन्न हुए रस के (पीतये) पान करने के लिये (आ याहि) आइये और जैसे (निर्युवाणः) निकल गये युवा जन जिससे वा निरन्तर युवाजन (अशस्तीः) अहिंसाओं का आचरण करते अर्थात् हिंसाओं को नहीं करते हैं, वैसे कीजिये ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वायु से अग्नि बढ़ती और शीघ्र चलती है, वैसे ही न्याय से पालन की गई प्रजा से राजा वृद्धि को प्राप्त होता है और जो हिंसा नहीं करते हैं, वे शत्रुओं से रहित हुए सब के प्रिय होते हैं ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

इन्द्रसारथि

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (वायो) = गतिशील पुरुष! तू (अशस्तीः) = सब अप्रशस्त बातों को (निर्युवाणः) = अपने से पृथक् करता हुआ, नियुत्वान्- प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाला होता हुआ, (इन्द्रसारथिः) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को अपना सारथि बनाकर, इस (चन्द्रेण) = मनः प्रसादयुक्त (रथेन) = शरीर-रथ से (आयाहि) = कर्त्तव्यों में प्रवृत्त हो, ताकि (सुतस्य पीतये) = तू सोम को शरीर में ही सुरक्षित कर सके। [२] सोमरक्षण के लिये आवश्यक है कि, [क] हम निन्द्य बातों को अपने से दूर करें, [ख] इन्द्रियों को प्रशस्त बनाएँ, [ग] प्रभु को अपने रथ का सारथि बनाएँ। [घ] मनःप्रसाद के साथ सदा क्रिया में लगे रहें ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ– अप्रशस्तता से दूर होकर और सदा क्रियाशील बनकर हम सोम का रक्षण करें।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजविषयमाह ॥

अन्वय:

हे वायो राजँस्त्वं नियुत्वानिन्द्रसारथिरिव चन्द्रेण रथेन सुतस्य पीतय आयाहि यथा निर्युवाणोऽशस्तीश्चरन्ति तथा चर ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (निर्युवाणः) निर्गता युवानो यस्मन्नितरां युवानो वा (अशस्तीः) अहिंसाः (नियुत्वान्) नियतगतिर्वायुः (इन्द्रसारथिः) इन्द्रस्य विद्युतः सूर्य्यस्याऽग्नेर्वा नियमेन गमयिता (वायो) वायुवद्गुणविशिष्ट (आ) (चन्द्रेण) आह्लादकेन सुवर्णादिजटितेन (रथेन) (याहि) आगच्छ (सुतस्य) निष्पन्नस्य रसस्य (पीतये) पानाय ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायुनाग्निर्वर्धते सद्यो गच्छति तथैव न्यायेन पालितया प्रजया राजा वर्धते ये हिंसां नाचरन्ति तेऽजातशत्रवः सन्तः सर्वप्रिया भवन्ति ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Perennial young, ineffable, constant in motion and velocity, mover of fire, electricity and the sun, Vayu, highpriest of cosmic yajna, come by the golden chariot of the moon for a drink of soma and for protection and promotion of the finest creations of humanity.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The duties of a king are told.

अन्वय:

O the wind-like mighty king ! come here mounting on your charming golden chariot which is run by electricity, sun or energy for regular movements. Come to drink the Soma juice. The young and old all righteous persons observe non-violence, and thus perform Yajna likewise.

भावार्थभाषाः - As the wind kindles fire, likewise, you should also do. O king! you grow (in popularity and otherwise) on account of the people ruled justly. Those who do not resort to violence (without a just cause against the wicked) they have no enemies and become very popular.
टिप्पणी: नियुतो वायोः आदिष्टोय योजनानि (NG 1. 15) अशस्ती 'अ + सु - हिंसायाम् (भ्वा० ) एष एवेन्द्रो य एष (सूर्य:) तपति ।। ( Stph 2, 3, 4,15) स मः स इन्द्र एष एव स व (सूर्यः ) एष तपति || (जैमिनोयोपनिषद् ब्राह्मणे १,२८,८) यदशनिरिन्द्रस्तेन || (कौषीतकी ब्राह्मणे ६-९)
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायूने अग्नी वाढतो व तात्काळ पसरतो. तसेच राजा हा न्यायाने पालन केलेल्या प्रजेकडून वाढतो व जे हिंसा करीत नाहीत ते अजातशत्रू बनून सर्वांचे आवडते होतात. ॥ २ ॥