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अ॒स्माँ इ॒हा वृ॑णीष्व स॒ख्याय॑ स्व॒स्तये॑। म॒हो रा॒ये दि॒वित्म॑ते ॥११॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asmām̐ ihā vṛṇīṣva sakhyāya svastaye | maho rāye divitmate ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्मान्। इ॒ह। वृ॒णी॒ष्व॒। स॒ख्याय॑। स्व॒स्तये॑। म॒हः। रा॒ये। दि॒वित्म॑ते ॥११॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:31» मन्त्र:11 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:26» मन्त्र:1 | मण्डल:4» अनुवाक:3» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे तेजस्वी राजन् ! आप (इह) इस संसार वा राज्य में (अस्मान्) हम लोगों को (स्वस्तये) सुख के लिये (महः) बड़े (दिवित्मते) विद्या, धर्म्म और न्याय से प्रकाशित (सख्याय) मित्रत्व के लिये और (राये) धन के लिये (वृणीष्व) स्वीकार करो ॥११॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! जैसे आप हम लोगों में मित्रता रखते हैं, वैसे हम लोग भी आप में सदा ही मित्र हुए वर्त्ताव करें ॥११॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

प्रभु को मित्रता में कल्याण व दीप्तियुक्त ऐश्वर्य

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे प्रभो ! (इह) = इस जीवन में (अस्मान्) = हमें (आवृणीष्व) = आप चुनिए, स्वीकार करिए। एक तो (सखाय) = अपनी मित्रता के लिए और मित्रता के द्वारा (स्वस्तये) = कल्याण के लिए, उत्तम स्थिति के लिए । प्रभु प्राणियों के दो विभाग करते हैं, एक तो वे, जो कि प्रकृति की ओर झुके हुए हैं और दूसरे वे जो कि प्राकृतिक भोगों में न फँसकर प्रभु-प्रवण हैं। उस समय हम पिछले विभाग में आकर प्रभु के ही मित्र बनें और परिणामतः प्राकृतिक भोगों से न कुचले जाकर उत्तम स्थिति को प्राप्त करें। [२] हे प्रभो! आप हमें इसलिए भी चुनिए कि हम (दिवित्मते) = दीप्तिवाले (महः राये) = महान् ऐश्वर्य को प्राप्त करनेवाले हों। प्रभु की शरण में जाने पर धन की कमी तो रहती ही नहीं, इस धन के साथ ज्ञानदीप्ति का भी निवास होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु की मित्रता में कल्याण है, इसी में दीप्ति से युक्त महान् ऐश्वर्य का लाभ है।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! राजँस्त्वमिहास्मान् स्वस्तये महो दिवित्मते सख्याय राये च वृणीष्व ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मान्) (इहा) संसारे राज्ये वा। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (वृणीष्व) स्वीकुर्याः (सख्याय) मित्रत्वाय (स्वस्तये) सुखाय (महः) महते (राये) धनाय (दिवित्मते) विद्याधर्म्मन्यायप्रकाशिताय ॥११॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! यथा भवानस्मासु मैत्रीं रक्षति तथा वयमपि त्वयि सदैव सखायः सन्तो वर्त्तेमहि ॥११॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Take us up, O lord, and receive us under your divine protection for friendship, all round well being, and for the great gift of the immense wealth of this heavenly world right here.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

To treat the subjects justly is the foundation of a good rule. It is highlighted below.

अन्वय:

O great ruler! you take us to your friendship, so that we get more wealth and your regime runs the kingdom to make it delightful and illuminated with learning of righteousness and justice.

भावार्थभाषाः - O ruler! the way you treat us friendly, our duties are also to reciprocate by behaving in a friendly manner.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा! जशी तू आमच्याबरोबर मैत्री ठेवतोस तसे आम्हीही तुझ्याबरोबर सदैव मैत्रीचे वर्तन करावे. ॥ ११ ॥